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आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा
२७१ है। आगे का विवरण इस प्रकार है- वि० सं० १९५६ का अहमदनगर, वि०सं० १९६१ का आवल कुटी, वि०सं० १९६२ का पारनेर, वि०सं० १९६३ का पूना, वि०सं० १९६४ का राहू (पूना), वि०सं० १९५५ का घोड़नदी, वि० सं० १९६६ का चिंचोडी पटेल, वि०सं० १९६७ का मिरजगाँव, वि०सं० १९६८ का मानस हिवड़ा, वि०सं० १९६९ का मीरी, वि०सं० १९७० का खरवंडी, वि०सं० १९७१ का मनमाड, वि०सं० १९७२ का लासलगाँव, वि०सं० १९७३ का वाधली, वि० सं० १९७५ का बेलबंडी, वि० सं० १९७६ का आवल कुटी, वि०सं० १९७७ का अहमदनगर, वि०सं० १९७८ का पाथर्डी, वि०सं० १९७९ का कम (निजाम स्टेट) वि०सं० १९८० का अहमदनगर, वि०सं० १९८१ का चातुर्मास करमाला, वि०सं० १९८२ का चाँदा (अहमदनगर), वि०सं० १९८३ का चातुर्मास भुसावल में हुआ। चातुर्मास के पश्चात् भुसावल से आफ्ने विहार कर दिया। कानगाँव में आपको हल्का बुखार हुआ। अलीपुर में अचानक ज्वर तेज हो गया और वहीं एक मन्दिर में आपने सागारी संथारा ले लिया। वि०सं० १९८४ ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमी दिन सोमवार को मध्याह्न में अलीपुर में ही आप स्वर्गस्थ हो गये। मुनि श्री वृद्धिऋषिजी
आपका जन्म रतलाम के गादिया गोत्रीय ओसवाल परिवार में हुआ। आपके माता-पिता का नाम व जन्म-तिथि ज्ञात नहीं है। आपकी पत्नी का नाम श्रीमती माणकबाई था। महासती श्री हीराजी की प्रेरणा से आप दोनों पति-पत्नी वि०सं० १९४१ चैत्र मास में मुनि श्री रत्नऋषिजी की निश्रा में दीक्षित हुये। आपकी पत्नी श्रीमती माणकबाई महासती श्री हीराजी की शिष्या कहलायी । ऐसा उल्लेख मिलता है कि दीक्षा के समय मुनि श्री वृद्धिऋषिजी की अवस्था ३० वर्ष की थी, अत: कहा जा सकता है कि आपका जन्म वि०सं० १९११ में हुआ होगा। आपने ४० थोकड़े कंठस्थ किये थे। मालवा आपका प्रमुख विहार क्षेत्र रहा है। वि०सं० १९४६ का चातुर्मास आपने शाजापुर व १९४७ का चौमासा रिंगनोद में किया, वि० सं० १९५४ में आपके शिष्यत्व में मुनिश्री वेलजीऋषिजी दीक्षित हुये थे। अनेक क्षेत्रों में जैनधर्म का अलख जगाते हुये आप पिपलोदा चातुर्मास के लिए पधार रहे थे कि रास्ते में अचानक आपका स्वर्गवास हो गया। आपकी स्वर्गवास तिथि उपलब्ध नहीं है। श्री वेलजीऋषिजी.
आपका जन्म कच्छ के देसलपुर ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री देवराजजी और माता का नाम श्रीमती जेठाबाई था। वि०सं० १९५४ के माध मास में आप मुनि श्री वृद्धिऋषिजी के सानिध्य में दीक्षित हुये। वि०सं० १९५९ का चातुर्मास आपने अपने गुरुवर्य के साथ प्रतापगढ़ में किया जहाँ ९ दिन की तपश्चर्या की, इसी में ९ मिलाकर १७ दिन के प्रत्याख्यान किये। फिर १७ दिन मिलाकर ३१ दिन के उपवास किये।
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