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आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा
२७७ की ओर न पधारना हो सकता है। आप विभिन्न प्रकार के उपसर्गों और परीषहों को सहन करते हुए निर्भीक भाव से तपाराधना करते थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आप बेलेबेले तपस्या करते थे और सर्दी-गर्मी की आतापना भी लेते थे।
आपके पाँच मुख्य शिष्य थे- १. मुनि श्री ताराऋषिजी, २. मुनि श्री रणछोड़ऋषिजी, ३. मुनि श्री गिरधरऋषिजी , ४. मुनि श्री माणकऋषिजी , ५. मुनि श्री कालूऋषिजी।
___ आपके स्वर्गवास की तिथि उपलब्ध नहीं होती है। इतना उपलब्ध होता है कि आपने २७ वर्ष संयममार्ग का पालन किया था। अत: दीक्षा-तिथि वि०सं० १७१३ मानने पर आपके स्वर्गवास की तिथि वि०सं० १७४० के आस-पास होनी चाहिए।
श्री कहानऋषिजी की शिष्य परम्परा आचार्य श्री. ताराऋषिजी.
पूज्य श्री कहानऋषिजी के स्वर्गस्थ हो जाने पर श्री ताराऋषिजी उनके पाट पर बैठे। आपके विषय में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। आपकी दीक्षा कहानऋषिजी के सानिध्य में हुई थी । आपका विहार क्षेत्र मालवा, मेवाड़, गुजरात और काठियावाड़ रहा। अन्त में आप खम्भात पधारे और विभिन्न क्षेत्रों में विचरण कर जिशासन की खूब प्रभावना की। आपके २२ शिष्य हुए। पंचेवर सम्मेलन में आप उपस्थित थे। प्रतापगढ़ भण्डार से प्राप्त एक प्राचीन पने से यह ज्ञात होता है कि इस सम्मेलन में चार सम्प्रदायों ने भाग लिया था। आचार्य श्री ताराऋषिजी के परिवार से वे स्वयं तथा मुनि श्री जोगाऋषिजी, श्री तिलोकऋषिजी , आर्या श्री राधाजी आदि सम्मिलित हईं थीं। पूज्य श्री लालचन्दजी के परिवार से मुनि श्री अमरसिंहजी, मुनि श्री दीपचन्दजी, श्री कहानजी और आर्याजी, श्री भागाजी, श्री नीराजी आदि उपस्थित थीं। पूज्य श्री हरिदासजी के परिवार से श्रीमनसारामजी, श्री मलूकचन्दजी, आर्या श्री फूलांजी आदि ने भाग लिया था। पूज्य श्री परशरामजी के संघाड़े से मुनि श्री खेमसिंहजी, मनि श्री खेतसीजी, आर्या श्री केसरजी आदि ने भाग लिया था।
आपका (ताराऋषिजी का) स्वर्गवास कब हुआ यह तिथि उपलब्ध नहीं होती। आपके २२ शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं
श्री वीरभानऋषिजी, श्री लक्ष्मीऋषिजी, श्री मोहनऋषिजी, श्री जीवनऋषि जी, श्री सौभाग्यऋषिजी, श्री चूनाऋषिजी, श्री रतनऋषिजी, श्री भानऋषिजी, श्री मंगल ऋषिजी, श्री कालाऋषिजी, श्री भूलाऋषिजी, श्री मांडलऋषिजी, श्री धर्मऋषिजी, श्री केवलऋषिजी, श्री श्यामऋषिजी, श्री बालऋषिजी, श्री भगाऋषिजी, श्री प्रतापऋषिजी, श्री संतोषऋषिजी, श्री शंकरऋषिजी, श्री बलऋषिजी, श्री वीरभाणजी।
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