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अष्टम अध्याय धर्मसिंहजी का दरियापुरी सम्प्रदाय
लोकागच्छ में आयी शिथिलता के विरुद्ध क्रियोद्धार करनेवालों में पूज्य श्री धर्मसिंहजी का नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया जाता है। धर्मसिंहजी का जन्म गुजरात प्रान्त के जामनगर में वि०सं० १६५६ वैशाख सुदि द्वादशी को हुआ था। आपके पिता का नाम श्री जीवनदासजी और माता का नाम श्रीमती शीबाबाई था। श्री धर्मदासजी के बचपन का नाम धर्मचन्द था। १६ वर्ष की उम्र में आप लोकागच्छ के यति श्री रत्नसिंहजी के शिष्य श्री देवजी के सम्पर्क में आये। उनके उद्बोधन से आपके मन में वैराग्य पैदा हुआ। माता-पिता के मना करने पर भी आपने वि०सं० १६७५ माघ सुदि त्रयोदशी को यति श्री शिवजीऋषि के सानिध्य में जामनगर के लोकागच्छीय उपाश्रय में आर्हती दीक्षा ग्रहण कर ली। आपके साथ आपके माता-पिता भी दीक्षित हुये थे। आगमों के अध्ययन के पश्चात् आपने जाना कि तत्कालीन साधु आचार व्यवस्था आगम विरुद्ध है। आचार व्यवस्था में आयी शिथिलता के विषय में आपने अपने गुरु से चर्चा की। चर्चा के पश्चात् गुरुवर्य ने क्रियोद्धार करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। अत: आपने अपने गुरु यति श्री शिवजीऋषि से आज्ञा लेकर १६ मुनिराजों के साथ अहमदाबाद के दरियापुरी दरवाजा में वि०सं० १८८५ वैशाख सुदि तृतीया को आपने क्रियोद्धार किया।
आपने २६ आगमों के टब्बे लिखे हैं। इनके अतिरिक्त 'भगवती', पनवणा', 'ठाणांग', 'रायप्पसेणिय', 'जीवाभिगम', 'जम्बूद्वीपपण्णति', 'चन्दपण्णति, 'सूरपण्णति के यन्त्र', 'व्यवहार की हुंडी', 'सूत्र समाधि की हुंडी', 'सामायिक चर्चा', 'द्रौपदी चर्चा', 'साधु सामाचारी' व 'चन्दपण्णति की टीप' (हुंडी) आदि रचनायें आपने तैयार की थीं। ऐसी जनश्रुति है कि आप दोनों हाथ और दोनों पैरों से लिखते थे। वि०सं० १७२८ आश्विन सुदि चतुर्थी को आपका स्वंगवास हो गया। आपकी परम्परा 'दरियापुरी सम्प्रदाय' के नाम से आज भी विद्यमान है। आपकी इस परम्परा में आपके पश्चात् पट्ट पर श्री सोमऋषिजी विराजित हुये। ये सोमऋषिजी और श्री लवजीऋषिजी के पट्टधर श्री सोमऋषिजी एक ही व्यक्ति थे या दो, यह शोध का विषय है। क्योंकि श्री लवजीऋषिजी के शिष्य श्री सोमजीऋषिजी काल भी वि०सं० १७१० से १७३२ है। यह विचारणीय बिन्दु है। श्री सोमऋषिजी के बाद दरियापुरी पट्ट परम्परा में श्री मेघजीऋषिजी ने संघ की बागडोर सम्भाली। उनके पश्चात क्रमश: श्री द्वारिकादासजी, श्री मोरारऋषिजी, श्री नाथाऋषिजी, श्री जयचन्दऋषिजी, श्री मोरारऋषिजी (द्वितीय), श्री नाथाऋषिजी (द्वितीय), श्री जीवराजऋषिजी, श्री परागऋषिजी,
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