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आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा
२४७ अपने कंधे पर उठाकर ले गये। फिर भी आपको गुरु प्रेम से वंचित होना पड़ा। वहाँ से पूज्य श्री हरखाऋषिजी ने आपको अपनी सेवा में बुला लिया। वि०सं० १९८० में नागपुर में मुनि श्री वृद्धिऋषिजी की दीक्षा हुई । वि०सं० १९९३ माघ कृष्णा पंचमी को भुसावल में मुनि श्री देवजीऋषिजी को आचार्य पद की चादर ओढ़ाई गयी। इसी अवसर पर शाजापुर निवासी पानकुंवरबाई की दीक्षा भी हुई थी।
आप एक कठोर तपस्वी थे । वि०सं० १९५८ से वि०सं० १९८१ तक आपने बहुत-सी तपस्यायें की - १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४, ३८, ४१।
इस प्रकार की कई लड़ियाँ आपने अपने संयम जीवन में की । व्याख्यान देना और प्रतिदिन एक घंटा खड़े रहकर ध्यान करना आपका रोज का नियम था। वि०सं० १९९९ में श्रीरामऋषिजी की दीक्षा हुई । दीक्षा सम्पन्न कर आप चातुर्मास करने हेतु सदरबाजार (नागपुर) से इतवारी पधारे । आषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा के दिन स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहा। उसी समय नागपुर में दंगा का माहौल उत्पन्न हो गया। बहुत से श्रावक वहाँ से पलायन कर गये। डॉक्टर ने बताया- आपको लकवा की शिकायत है । सदर बाजार के श्रावकों की प्रार्थना पर आप पुन: सदर पधारे । वहीं मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी को आपने युवाचार्य श्री आनन्दऋषिजी और श्रीसंघ के नाम संदेश निकाला। युवाचार्य श्री आनन्दऋषिजी के लिये संदेश था-'अब सम्प्रदाय का सम्पूर्ण भार आपके ऊपर ही है । आप सब संतों
और सतियों को निभा लीजिएगा।" सन्त-सन्तियों के नाम संदेश था- “आप जैसे मुझे मानते थे, उसी प्रकार युवाचार्य श्री को मानते हुए उनकी आज्ञा में चलना।' वि०सं० १९९९ के मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी के दिन तिविहार उपवास कियां और उपरोक्त आशय युवाचार्य श्री आनन्दऋषिजी, मोहनऋषिजी और श्री कल्याणऋषिजी के पास भिजवाये। तदुपरान्त अगले दिन यावज्जीवन चौविहार प्रत्याख्यान कर लिया। उसी दिन रात्रि में आपका स्वर्गवास हो गया । आपके द्वारा किये गये चातुर्मास स्थल एवं वर्ष इस प्रकार
स्थान
धार
वि०सं० १९५० १९५१ १९५२
वि०सं० १९५७ १९५८ १९५९
स्थान धुलिया भोपाल मन्दसौर इन्दौर भोपाल शुजालपुर देवास
१९६०
१९५३ १९५४
इच्छावर भोपाल पीपलोदा आगर भोपाल उज्जैन
१९६१ १९६२ १९६३
१९५५ १९५६
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