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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास आचार्य श्री कुशलचन्दजी
आचार्य श्री महासिंहजी के बाद श्री कुशलचन्दजी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। वि०सं० १८६१ में आप आचार्य बने तथा वि०सं० १८६८ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके समय में संघ दो भागों में विभक्त हो गया - ऐसा उल्लेख मिलता है। एक शाखा के उत्तराधिकारी मुनि श्री छजमलजी हए और दूसरी शाखा के मुनि श्री नागरमलजी उत्तराधिकारी बनें। किन्तु नागरमलजी की परम्परा के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आचार्य श्री छजमजजी
आचार्य श्री महासिंहजी के पश्चात् आचार्य पद पर श्री छजमलजी विराजित हुये। वृद्धावस्था में आपका भदौड़नगर में स्थिरवास था। आपके विषय में कोई विशेष जानकारी तो नहीं मिलती किन्तु एक जनश्रुति है कि आपके स्वर्गवास के बाद मुनिसंघ का विच्छेद हो गया था। आचार्य श्री रामलालजी
आचार्य श्री छजमलजी के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् पूज्य श्री रामलालजी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए । आपके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती। हाँ ! जनश्रुति से आपके विषय में थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है। कहा जाता है कि आचार्य श्री छजमलजी के समय संघ-विच्छेद हो गया था। इस मुनिसंघ का विच्छेद से साध्वीप्रमुखा ज्ञानांजी (पंजाब परम्परा) की प्रशिष्या साध्वी श्री मूलांजी जिनके सांसारिक पक्ष से आचार्य श्री छजमलजी मौसा लगते थे, मर्माहित हुई थी। उन्होंने मुनिसंघ की पुनर्स्थापना का संकल्प लिया। इस सन्दर्भ में उन्होंने धर्मनिष्ठ श्री निहालचन्दजी राजपूत से जिनशासन की सेवा में संयममार्ग पर चलने हेतु उनके पुत्र की याचना की। श्री निहालचन्दजी ने खुशी-खुशी अपने पुत्र रामलाल को साध्वी श्री मूलांजी की सेवा में दे दिया। साध्वीजी के उपदेश से बालक रामलाल में वैराग्य उत्पन्न हुआ। साध्वीजी ने बालक को आहती दीक्षा दी । साध्वीजी के सानिध्य में आपने आगम ज्ञान प्राप्त किया। दिन में आप साध्वीजी से ज्ञान प्राप्त करते और रात्रि में उपाश्रय में उसे कंठस्थ करते । आपको लोग 'पंडितजी' नाम से पुकारते थे । वि०सं० १८९७ में आपका चातुर्मास जयपुर हुआ, जहाँ श्री अमरचन्दजी आपके दर्शनार्थ पधारे थे। आपके कई शिष्य हुए जिनमें सात शिष्य प्रमुख थे। आपके सात शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं- मुनि श्री दौलतरामजी, मुनि श्री लोटनदासजी, मुनि श्री धनीरामजी, मुनि श्री देवीचन्दजी, मुनि श्री अमरसिंहजी, मुनि श्री रामरत्नजी और मुनि जयंतिसिंहजी। कहा जाता है कि आपके द्वारा पंजाब सम्प्रदाय का एक बार पुनः उद्धार हुआ। वि०सं० १८९८ के आश्विन मास में दिल्ली के चाँदनी चौक में आपका स्वर्गवास हुआ।
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