________________
२०२
स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
आप वैराग्य की ओर अभिमुख थे । फलतः आप छः वर्ष तक घर से भागते रहे और मातापिता समझा-बुझाकर घर लाते रहे। अन्ततः आपको मार्ग मिल गया। आपने श्री घमंडीलालजी के सहयोग से वि० सं० १९६० मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी को १९ वर्ष की अवस्था में कांदला में आचार्य श्री सोहनलालजी के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के नौ वर्ष पश्चात् वि०सं० १९६९ फाल्गुन शुक्ला षष्ठी को आप युवाचार्य पद पर अधिष्ठित हुए। आप बड़े तार्किक थे । शास्त्रज्ञान इतना गम्भीर था कि विरोधी शास्त्रार्थ करने से घबराते थे । २४ वर्ष तक युवाचार्य पद पर जिनशासन की सेवा करने के पश्चात् वि०सं० १९९३ फाल्गुन शुक्ला तृतीया को होश्यारपुर में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आप संयमनिष्ठ, त्यागनिष्ठ और प्रभावक आचार्य थे । आचार्य सोहनलालजी की प्रेरणा से आयोजित अजमेर साधु-सम्मेलन में आपको पंजाबकेसरी की उपाधि से विभूषित किया गया था । वि० सं० १९९९ की एक घटना आपकी संयमप्रियता और जिनशासन की अखण्डता को दर्शित करती है - "जोधपुर से अजमेर की ओर आपका विहार था । मार्ग में भयंकर उदरशूल उठा । विहार करते हुए आप अजमेर पधारे । वहाँ के प्रमुख श्रावक गणेशीमलजी बोहरा को आपने कहा कि आप मेरा पूरा ध्यान रखना ताकि मेरे संयमी जीवन में दोष न लगे । कृत दवाई न मेरे लिए लाना और न बनवाना, वैद्य आदि को मेरे उपचार हेतु शुल्क मत देना । पथ्य आदि में भी दोष न लगे।" वि० सं० २००२ ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को अम्बाला में आप जैसे संयमी और तपनिष्ठ आचार्य का स्वर्गवास हो गया। आपके सात प्रमुख शिष्य हुये - तपस्वी श्री ईश्वरदासजी, कविश्री हर्षचन्द्रजी, तपस्वी श्री कल्याणचन्द्रजी, प्रवर्तक श्री शुक्लचन्दजी, श्री जौहरीलालजी, श्री सुरेन्द्रमुनिजी और श्री हरिश्चन्द्रजी ।
आचार्य श्री आत्मारामजी
आचार्य काशीरामजी के बाद मुनि श्री आत्मारामजी पंजाब सम्प्रदाय के आचार्य बने। आपका जन्म पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के राहों गाँव में वि० सं० १९३९ की भाद्र शुक्ला द्वादशी को हुआ। आपके पिता का नाम श्री मनसारामजी और माता का नाम श्रीमती परमेश्वरी देवी था। जाति से आप क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। दुर्भाग्य से आपके माता-पिता का स्वर्गवास आपके बाल्यकाल में ही हो गया। अतः आपका पालन-पोषण अन्य परिजनों ने ही किया । एक बार आप वकील सोहनलालजी के साथ आचार्य मोतीरामजी के प्रवचन में पहुँचे और उनके पावन उपदेश से आपके मन में वैराग्य का बीज उत्पन्न हुआ। आपकी दीक्षा वि०सं० १९५१ की आषाढ़ शुक्ला पंचमी को छतबनूड़ नामक गाँव में हुई । आप मुनि श्री शालिगग्रामजी के शिष्य घोषित हुये । आपने आचार्य मोतीरामजी के सान्निध्य में जैनागमों का अध्ययन किया। वि० सं० १९६९ में आचार्य श्री सोहनलालजी के द्वारा अमृतसर में आपको उपाध्याय पद प्रदान किया गया। उसके पश्चात् वि०सं० १९९१ में 'जैनधर्म दिवाकर' की उपाधि प्रदान की गयी और आचार्य काशीरामजी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org