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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास तप और संयम में संलग्न होने के साथ-साथ आपने आगम साहित्य का भी गहन अध्ययन किया। आपके आगम सम्बन्धी तलस्पर्शी अध्ययन एवं चिन्तन को ध्यान में रखते हुए आचार्य श्री अमरसिंहजी के स्वर्गस्थ हो जाने पर वि०सं० १९३९ ज्येष्ठ कृष्णा तृतीया को मालेरकोटला (पंजाब) में श्रीसंध द्वारा आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आपके पाँच प्रमुख शिष्य थे – मुनि श्री शिवदयालजी, मुनि श्री विशनचन्दजी, मुनि श्री नीलोपदजी, मुनि श्री दलेलमलजी एवं मुनि श्री धर्मचन्दजी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुनि श्री मयारामजी ने भी आपसे ज्ञानार्जन किया था। मात्र २१ दिन आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे । वि० सं० १९३९ ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री मोतीरामजी
आचार्य श्री रामबख्शजी के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आपका जन्म लुधियाना जिला के बहलोलपुर ग्राम में वि०सं० १८७८ आषाढ़ शुक्ला पंचमी को हुआ। आपके पिता का नाम लाला श्री मुसद्दीलालजी तथा माता का नाम श्रीमती जयवन्तीदेवी था। जाति से आप कोहली क्षत्रिय तथा कर्म से व्यापारी थे। किन्तु धार्मिक संस्कार आपको विरासत में मिले थे। वि०सं० १९०८ आषाढ़ सुदि दशमी को आपने अपने तीन मित्रों के साथ दिल्ली में पूज्य आचार्य श्री अमरसिंहजी से जिन-दीक्षा ग्रहण की। आपके तीन मित्रों के नाम थे- श्री रत्नचन्द्रजी, श्री सोहनलालजी एवं श्री खेतरामजी। दीक्षोपरान्त तप, त्याग, सेवा, स्वाध्याय आपके जीवन के पर्याय बन गये। वि०सं० १९३९ ज्येष्ठ मास में आप आचार्य पद पर मनोनित हुए। वि०सं० १९५८ आसोज वदि द्वादशी को लुधियाना में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके १९ वर्षों के कार्यकाल में संघ का अधिकाधिक विकास हआ। आपके पाँच प्रमुख शिष्य थे - मुनि श्री गंगारामजी, मुनि श्री गणपतरायजी, मुनि श्री श्रीचन्द्रजी, मुनि श्री हीरालालजी एवं मुनि श्री हर्षचन्द्रजी। आचार्य श्री सोहनलालजी
स्थानकवासी पंजाब परम्परा में मुनि श्री सोहनलालजी का अनुपम स्थान है। आपका जन्म वि०सं० १९०६ में सम्बडियाला (पसरूर) में हुआ। आपके पिता का नाम मथुरादासजी और माता का नाम श्रीमती लक्ष्मीदेवी था। आप जाति से ओसवाल थे । वि०सं० १९३३ में आचार्य श्री अमरसिंहजी के पास आपने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त आपने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । वि० सं० १९५१ चैत्र कृष्णा एकादशी को आपको आचार्य श्री अमरसिंहजी की परम्परा में आचार्य मोतीरामजी के द्वारा युवाचार्य पद पर विभूषित किया गया तथा वि०सं० १९५८ में पटियाला में आप आचार्य श्री मोतीरामजी के पश्चात् आचार्य पद पर आसीन हए । अपनी असाधारण संगठन शक्ति द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त स्थानकवासी समाज को संगठित करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर आपने अपना मत प्रस्तुत किया, जिसे सभी
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