________________
१९१
आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा आचार्य श्री नानकरामजी की परम्परा
क्रियोद्धारक जीवराजजी के पट्ट पर श्री लालचन्दजी विराजमान हुये। श्री लालचन्दजी के पश्चात् एक और श्री अमरसिंहजी की परम्परा और दूसरी ओर श्री दीपचन्दजी की परम्परा चली। श्री दीपचन्दजी के पश्चात् श्री माणकचन्दजी ने स की बागडोर सम्भाली। श्री माणकचन्दजी के पश्चात् पाँचवें पट्टधर के रूप में श्री नानकरामजी ने संघ का नेतृत्व किया। इन्हीं के नाम से सम्प्रदाय आगे विकसित हुई। नानकरामजी के पश्चात् क्रमश: श्री वीरमणिजी, श्री लक्ष्मणदासजी, श्री मगनलालजी, श्री गजमलजी, श्री धूलचन्दजी, प्रवर्तक श्री पन्नालालजी, प्रवर्तक श्री छोटेलालजी, प्रवर्तक श्री कुन्दनमलजी, आचार्य श्री सोहनलालजी और आचार्य श्री सुदर्शनलालजी ने संघ का नेतृत्व किया। वर्तमान में यह परम्परा आचार्य श्री सुदर्शनलालजी के नेतृत्व में विद्यमान है। वर्तमान में इस संघ में सन्त-सतियों की कुल संख्या २२ है जिनमें ६ साधुजी और १६ सतियाँजी हैं। सन्तों के नाम हैं- वयोवृद्ध श्री बालचन्दजी, श्री प्रिदर्शनजी, श्री संतोषजी, श्री दिव्यमुनिजी और श्री भव्यदर्शनजी।
इसी सम्प्रदाय में नानकरामजी के पश्चात् एक अलग परम्परा विकसित हुई जिसका नेतृत्व मुनि श्री निहालचन्दजी ने किया। श्री निहालचन्दजी के पट्ट पर श्री सुखलालजी विराजमान हये। सुखलालजी के पश्चात् क्रमश: श्री हरकचन्दजी, श्री दयालचन्दजी, श्री लक्ष्मीचन्दजी, श्री हगामीलालजी और श्री अभयराजजी ने संघ की बागडोर सम्भाली। वर्तमान में इस परम्परा में मात्र श्री अभयराजजी विद्यमान हैं।
इनके विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हो पायी, अत: संक्षिप्त रूपरेखा ही प्रस्तुत की जा सकी है।
आचार्य श्री नाथूरामजी की परम्परा
क्रियोद्धारक जीवराजजी की परम्परा में श्री लालचन्दजी के एक शिष्य श्री मनजीऋषि से एक अलग परम्परा चली। श्री मनजीऋषि के पश्चात् श्री नाथूरामजी ने संघ की बागडोर सम्भाली। इन्हीं के नाम से यह परम्परा आगे विकसित हुई। श्री नाथूरामजी के पश्चात् पट्टधर के रूप में श्री लखमीचन्दजी मनोनित किये गये। श्री लखमीचन्दजी के पश्चात् क्रमश: श्री छीतरमलजी, श्री रामलालजी, श्री फकीरचन्दजी, श्री फूलचन्दजी, और श्री सुशीलकुमारजी संघ प्रमुख हुये।
इस परम्परा की एक उपशाखा भी है जिसमें श्री रानचन्द्रजी, श्री वरखभानजी, श्री कुन्दनमलजी आदि मुनिराजों के नाम मिलते हैं। इन दोनों परम्पराओं में आचार्य पद समाप्त हो गये हैं, अत: प्रवर्तक आदि पदधारक मुनिराज ही संघप्रमुख होते रहे हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org