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सप्तम अध्याय आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा'
लोकागच्छ में शिथिलता आ जाने पर जिन पाँच क्रियोंद्धारकों के नाम आते है उनमें श्री लवजीऋषिजी का नाम भी बड़े आदर से लिया जाता है। आपका जन्म सूरत में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती फूलाबाई था। आपके पिताजी का नाम उपलब्ध नहीं होता है। बाल्यकाल में ही आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। अत: आपका बचपन अपने नाना श्री वीरजी बोरा के यहाँ ही व्यतति हुआ। आप अपनी माता के साथ यति श्री बजरंगजी के पास प्रवचन सुनने जाया करते थे। माता के अनुरोध पर आप यति श्री बजरंगजी से जैनागमों का अभ्यास करने लगे। अल्प समय में ही आपने 'दशवैकालिक', 'उत्तराध्ययन', 'आचारांग', 'निशीथ', 'दशाश्रतस्कन्ध'
और 'बृहत्कल्प' आदि ग्रन्थों का अभ्यास कर लिया। इसी क्रम में आप में दीक्षा ग्रहण करने की भावना जागी। अपने नाना श्री वीरजी बोरा से आपने अनुमति माँगी । वीरजी बोरा ने कहा- यदि दीक्षा लेनी है तो श्री बजरंगऋषिजी के पास दीक्षा ग्रहण करो तो आज्ञा दे सकते हैं। वैरागी लवजी ने दीक्षा पूर्व बजरंगजी के सामने एक शर्त रखी कि आपके और मेरे बीच अगर आचार-विचार सम्बन्धी मतभेद उत्पन्न न हुआ और ठीक तरह से निर्वाह होता रहा तो मैं आपकी सेवा में रहँगा, अन्यथा दो वर्ष बाद में पृथक होकर विचरण करूँगा। वि०सं० १६९२ में आप यति श्री बजरंगऋषिजी के पास दीक्षित हुए, इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। 'अजरामर स्वामी का जीवन चरित्र' नामक पुस्तक की प्रस्तावना में (पृ०-१४) पण्डितरत्न शतावधानी मुनि श्री रत्नचन्द्रजी ने लिखा है- पूज्य श्री लवजीऋषिजी ने वि०सं० १६९२ में दीक्षा ली और शुद्ध क्रियोद्धार वि० सं० १६९४ में किया। 'श्री छगनलालजी के जीवन चरित्र' में (पृ०२३) भी दीक्षा वर्ष वि० सं० १६९२ ही उल्लेखित है। इसी प्रकार 'श्रीमद् धर्मसिंहजी अने श्रीमद् धर्मदासजी' नामक पुस्तक में लिखा है - श्रीमान् लवजीऋषिजी छेल्ली नोंध मलवा प्रमाणे कहिए तो १६९२ मा यति सम्प्रदाय थी मुक्त थई जैन समाज आगल आव्या।" इससे यह स्पष्ट होता है कि वि०सं० १६९२ में श्री लवजीऋषिजी श्री बजरंगजी के सम्प्रदाय से अलग हुये थे। इस प्रकार कुछ लोगों ने दीक्षा संवत् को क्रियोद्धार संवत् मान लिया है, किन्तु यह उचित प्रतीत नहीं होता।
दीक्षोपरान्त आप ज्ञान और चारित्र की उपासना में संलग्न हो गये, किन्तु आचारगत व्यवस्था के विषय में आप अपने गुरु से सहमत नहीं हो सके । फलत: दो वर्ष पश्चात् अपने गुरु से आज्ञा लेकर आप खम्भात पधारे जहाँ वि०सं० १६९४ में + 'ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास', लेखक- मुनि श्री मोतीऋषि पर आधारित
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