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आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा
१८१ आचार्य श्री शीतलदासजी और उनकी परम्परा
पूज्य श्री जीवराजजी के शिष्य श्री धन्नाजी हुए। कहीं-कहीं धनाजी को धनराजजी के नाम से भी सम्बोधित किया गया है। पूज्य श्री धन्नाजी के पाट पर श्री लालचन्दजी विराजित हुए। श्री लालचन्दजी की पाट पर मुनि श्री शीतलदासजी विराजित हुए जिनके नाम से यह परम्परा चली। आचार्य श्री शीतलदासजी.
आपका जन्म वि०सं० १७४७ में आगरा के निकटस्थ ग्राम में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री मेसजी और माता का नाम श्रीमती सुमित्रादेवी था। १६ वर्ष की अवस्था में वि० सं० १७६३ चैत्र कृष्णा द्वितीया को पूज्य श्री धन्नाजी के हाथों श्रमण दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने पर आपने जैन धर्म-दर्शन का तलस्पर्शी अध्ययन किया । ऐसा उल्लेख मिलता है कि जैनधर्म के मूल १४ शास्त्रों को आपने कंठस्थ किया था। साथ ही आपने कुछ रचनाओं का भी प्रणयन किया था, किन्तु वे उपलब्ध नहीं हैं । आप संयम और कठोर साधना के पोषक थे। कई बार आपने बेले-तेले, चोले और पाँच-पाँच दिन का तप किया था।
मध्य प्रदेश के साथ-साथ राजस्थान भी आपका विहार क्षेत्र रहा है। ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान के जहाजपुर, मांडलगढ़, अमरगढ़, काछोला, धामनियाँ आदि क्षेत्र, जो जैन धर्म एवं दर्शन से अनभिज्ञ थे, वहाँ के लोगों को आपने आठ-आठ दिन निराहार रहकर जैनधर्म के मर्म को समझाया। भीलवाड़ा के निकट पर ग्राम में आपने अधिक समय बिताया। वहाँ से आप बनेड़ा (राजपुर) पधारे जहाँ चार वर्ष रहकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। वि०सं० १८३७ पौष शुक्ला द्वादशी को आपने संथारा ग्रहण कर लिया। ३९ दिन का संथारा आया। इस प्रकार ९० वर्ष की आयु में वि०सं० १८३७ फाल्गुन शुक्ला पंचमी को आपका स्वर्गवास हो गया।
आचार्य श्री शीतलदासजी के पश्चात् की पट्ट-परम्परा
पूज्य श्री शीतलदासजी के पाट पर श्री देवीचन्द्रजी विराजित हुए। श्री देवीचन्द्रजी के पाट पर श्री हीराचन्द्रजी पटासीन हए। श्री हीराचन्द्रजी के पाट पर श्री लक्ष्मीचन्दजी आचार्य बने। श्री लक्ष्मीचन्दजी के बाद श्री भैरुदासजी पाट पर बैठे। श्री भैरुदासजी के पाट पर श्री उदयचन्दजी विराजित हुए। आचार्य श्री उदयचन्दजी
आपने १२ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की थी। आपके तीन प्रमुख शिष्य थे"यह परम्परा आर्या प्रेमकुंवरजी द्वारा लिखित श्री यशकंवरजी व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा श्री रिद्धकंवरजी . द्वारा लिखित मनोविजेता मुनि श्री वेणीचन्द पर आधारित है।
या।
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