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आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा
१७१ और मुनि नेमिचन्दजी की देख-रेख में सौप कर स्वर्गस्थ हो गये। वि०सं० १९५९ में आप आचार्य श्री ज्येष्ठमलजी की सेवा में पधारे और जब तक वे जीवित रहे तब तक आप उनके साथ रहे। आप में सेवा भाव इतना गहरा था कि आप न केवल अपने संघ के संतों की सेवा करते थे बल्कि अन्य सम्प्रदाय के संतों की भी सेवा में सदा तैयार रहते थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आपने ज्येष्ठमलजी, नेमीचन्दजी, मुलतानमलजी, दयालचन्दजी, उत्तमचन्दजी, बाधामल जी, हजारीमलजी आदि सन्तों की अत्यधिक सेवाएँ की थीं। वि०सं० १९८८ में पाली में जो मरुधर प्रान्त में विचरनेवाले स्थानकवासी छः सम्प्रदायों का सम्मेलन हुआ था उसका पूरा श्रेय आपको ही जाता है। वि०सं०२००९ में जो सादड़ी सम्मेलन हुआ था उसके पीछे भी आपकी ही प्रेरणा थी। यद्यपि सादड़ी सम्मेलन में आपको पद लेने के लिए बहुत आग्रह किया गया, किन्तु आपने उसे अस्वीकार कर दिया। आपने स्वयं तो अपने आचार्य के सान्निध्य में अध्ययन किया, किन्तु अपने योग्य एवं प्रिय शिष्य श्री पुष्करमुनिजी को क्वींस कालेज, वाराणसी और कलकत्ता एशोसियन से 'काव्यतीर्थ'
और 'न्यायतीर्थ' की परीक्षाएँ दिलवायी। श्री पुष्करमुनिजी द्वारा परीक्षा दिलवाना आपकी इस भावना को उजागर करती है कि आप व्यक्ति के शैक्षिक विकास के पक्षधर थे। ४ दिसम्बर १९५४ को पं० जवाहरलाल नेहरु आपके दर्शनार्थ पधारे थे, ५५ मिनट तक गुरुदेव से बातें हुई। वि०सं० २०१३ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी तदनुसार ई० सन् १९५६ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके चातुर्मास स्थल निम्न रहेस्थान
वि० सं० जोधपुर (मारवाड़) १९५०, १९६१, १९७७, २००१ पाली (मारवाड़) १९५१, १९६२, १९७०, १९८० जालोर (मारवाड़) १९५२, १९६७, १९७५, १९७९, १९८५ रंडेडा (मेवाड़) १९५३ निंबाहेड़ा (मेवाड़) १९५४ सनवाड़ (मेवाड़) १९५५, १९६६ भिंडर (मेवाड़) १९५६ गोगुंदा (मेवाड़) १९५७, १९८८ सादड़ी (मारवाड़) १९५८, २००८ सिवाना (मारवाड़) १९५९, १९६५, १९७८, १९८४, १९८६,
१९९९, २००९ समदड़ी (मारवाड़) १९६०, १९६४, १९६९, १९७१, १९७२, १९७३,
१९७४, १९८१, १९८३, १९९८ सालावास (मारवाड़) १९६३ बालोतरा (मारवाड़) १९६८
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