________________
१४६
स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास द्वारा हुई थी । यथार्थ स्थिति क्या थी, स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में आज इस सम्बन्ध में कुछ कह पाना कठिन है, किन्तु इतना निश्चित है कि सरवाजी के प्रशिष्य और अर्जनऋषि के शिष्य दुर्गादासजी ने वि०सं० १६२५ में खन्दक चौपाई की रचना की थी और उसमें उन्होंने अपना गच्छ उत्तरार्द्ध लोकागच्छ बताया है। इससे यह तो सिद्ध हो जाता है कि वि० सं० १६२५ के पूर्व 'उत्तरार्द्ध लोकागच्छ' की स्थापना हो चुकी थी। श्री जीवाजी.
आपका जन्म वि०सं० १५५१ माघ वदि द्वादशी को सूरत निवासी श्री तेजपालजी डोसी के यहाँ हुआ था। आपकी माता का नाम कपूरदेवी था। वि०सं० १५७८ माघ सुदि पंचमी को आप रूपजी के सान्निध्य में दीक्षित हुए। दीक्षा के समय आपकी उम्र २८ वर्ष थी। रूपजी के स्वर्गवास के पश्चात् वि०सं० १५८५ में अहमदाबाद के झवेरी बाड़े में लोकागच्छ के नवलखी उपाश्रय में आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया । कहा जाता है कि आपके प्रतिबोध से सरत के ९०० घर लोकागच्छ की आम्नाय से जुड़ गये थे । यह स्पष्ट है कि जीवाजी के काल में लोकागच्छ 'गुजराती लोकागच्छ', 'नागौरी लोकागच्छ' और 'लाहौरी लोकागच्छ', ऐसे तीन गच्छों में विभाजित हो चुका था। स्व० मणिलालजी ने आपके जीवन के सम्बन्ध में एक विशेष घटना का उल्लेख किया है। उनके अनुसार आपके समय सिरोही राज्य दरबार में शैव और जैन के बीच विवाद हुआ था जिसमें जैनियों की हार हुई थी। हार जाने के कारण जैनियों को देश निकाले की आज्ञा भी दे दी गयी थी, किन्तु जीवाजी ने अपने शिष्य वरसिंहजी और कुंवरसिंहजी को शास्त्रार्थ करने के लिए भेजा और इन दोनों शिष्यों ने उसमें विजय प्राप्त करके गुजरात की भूमि पर लोकागच्छ के अस्तित्व को सुदृढ़ बनाया । जीवाजी के स्वर्गवास के पश्चात् गुजराती लोकागच्छ भी 'मोटापक्ष' और 'नानीपक्ष के रूप में दो भागों में विभाजित हो गया। जहाँ एक ओर वि० सं० १६१३ में बड़ौदा में वरसिंहजी को आचार्य पद दिया गया वहीं दूसरी ओर इसी के समकालिक बालापुर में कुंवरसिंहजी को आचार्य पद दिया गया। वरसिंहजी से जो परम्परा चली वह गुजराती लोकागच्छ मोटापक्ष के रूप में प्रसिद्ध हुई और कुंवरसिंहजी से जो परम्परा चली वह गुजराती लोकागच्छ नान्हीपक्ष के रूप में जानी गई। यद्यपि जीवाजी के प्रशिष्य और जगाजी के शिष्य जीवराजजी' के द्वारा क्रियोद्धार करके स्थानकवासी परम्परा का प्रारम्भ कर दिया गया था, किन्तु लोकागच्छ की मोटापक्ष और नानीपक्ष की यह परम्परा समानान्तर रूप से चलती रही। पट्टावलियों में जीवाजी के बाद इन दोनों परम्पराओं में कौन से प्रमुख आचार्य हए इसकी सूची मिलती है । नीचे हम वरसिंहजी की मोटापक्ष की पट्टावली और कुंवरसिंहजी की नानीपक्ष की पट्टावली प्रस्तुत कर रहे हैं - * जीवराजजी के विषय में विशेष जानकारी 'जीवराज और उनकी परम्परा' अध्याय के अन्तर्गत देखें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org