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लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति इसका तात्पर्य यह है कि संसार में अनेक व्यक्ति धर्म या मोक्ष के नाम पर ही हिंसा करते हैं, किन्तु ऐसी हिंसा मुनि उचित नहीं मानते हैं, वे उससे विरत रहते हैं । अतः धर्म के नाम पर की जानेवाली हिंसा को धर्म नहीं माना जा सकता है।
४६. इसमें लोकाशाह लिखते हैं कि 'आचारांग' के छठे अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में साधु को किस प्रकार का उपदेश देना चाहिए इसका उल्लेख हुआ है । इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि साधु जहाँ भी जायें वहाँ दयामय धर्म का उपदेश दें, हिंसा का उपदेश नहीं दें।
४७. इस बोल में वे कहते हैं कि आगम ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर अहिंसा की महिमा का विवेचन मिलता है । उसमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि श्रमण जिन विषयों में शंका नहीं करनी चाहिए वहाँ तो शंका करते हैं और जहाँ शंका करनी चाहिए वहाँ वे नि:शंक रहते हैं। वे पाप आदि कार्यों में शंका नहीं करते हैं, धर्मकार्य में शंका करते हैं। इस सन्दर्भ में लोकाशाह ने 'सूत्रकृतांग' से अनेकों उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इसमें सर्वत्र अहिंसा को ही धर्म बताया गया है, हिंसा को नहीं।
४८. इस बोल में लोकाशाह कहते हैं कि 'स्थानांग' में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जीव आरम्भ और परिग्रह इन दोनों के कारण से केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण नहीं कर पाता है अर्थात् हिंसा धर्म को प्राप्त करने में बाधक है ।
४९. लोकाशाह लिखते हैं कि 'स्थानांग' के तीसरे स्थान में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि व्यक्ति हिंसा, झठ आदि का सेवन करने से तथा श्रमण को अप्रासक, अनेषणीय आहार-पानी देने से अल्प आयुष्य का बन्ध करता है और इसके विपरीत जो हिंसा नहीं करता है, असत्य नहीं बोलता, श्रमण, ब्राह्मण को वन्दन नमस्कार कर एषणीय आहार-पानी का दान करता है वह दीर्घायुष्य का बन्ध करता है। इस प्रसंग में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि जिन-प्रासाद आदि बनवाने से दीर्घायुष्य का बन्ध करता है ।
५०. इसमें लोकाशाह लिखते हैं कि व्यक्ति किन कारणों से सातावेदनीय का बन्ध करता है और किन कारणों से असातावेदनीय का बन्ध करता है, इसका 'भगवती' में विस्तार से विवेचन हुआ है । इसमें दूसरे को दुःख, पीड़ा देने आदि असातावेदनीय कर्मबन्ध का और इसके विपरीत प्राणियों के प्रति अनुकम्पा भाव रखने, उनके प्रति दया करने को सातावेदनीय कर्मबन्ध का कारण कहा गया है । इसमें कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि जिन-प्रतिमा, प्रासाद आदि के बनवाने से सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है।
५१. इस बोल में लोकाशाह कहते हैं कि भोग-उपभोग आदि अनुभूतियों का वेदन जीव करता है, अजीव नहीं । अनभूति का सम्बन्ध जीव से है अजीव से नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि धर्म आदि की साधना का सम्बन्ध केवल चेतन सत्ता से है, जड़ वस्तुओं
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