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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास . भावना भाने का उल्लेख किया गया है । जो तथ्य मूल आगम में नहीं हैं वे नियुक्ति और वृत्ति में कैसे आ गये? नियुक्ति और वृत्ति का कार्य मूलसूत्र के अर्थ का स्पष्टीकरण करना ही है । प्रतिमा, प्रासाद (जिनभवन) तीर्थ आदि का मूलसूत्र में कहीं उल्लेख दिखता नहीं है, फिर उनकी नियुक्ति और वृत्ति में यह उल्लेख कैसे आया? विवेकीजन विचार करें?
४२. इस बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि वर्तमान में श्रावक को परिग्रह परिमाण व्रत देते समय यह नियम दिलवाया जाता है कि प्रतिमा का वन्दन-पूजन किये बिना भोजन नहीं करूँगा और इस नियम के भंग होने पर एकासन करूँगा । इसके अतिरिक्त प्रतिमा की प्रति एक वर्ष में चार अंग रचना, पक्वान चार सेर, सुपारी चार सेर, दीवेल दस सेर, फूल एक लाख, नया धान और नया फूल होने पर पहले प्रतिमा के आगे चढ़ाऊँगा- ये नियम श्रावक को दिलवाये जाते हैं | आगम में आनन्द श्रावक आदि ने परिग्रह परिमाण आदि व्रत लिये उनमें कहीं भी ऐसे नियमों का उल्लेख नहीं है । यदि वीतराग को प्रतिमा मान्य होती तो वे आनन्द श्रावक को नियम दिलवाते समय इन बातों का नियम में उल्लेख करते। इससे यह फलित होता है कि वीतराग को प्रतिमा मान्य नहीं थी।
४३. इस बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि भगवती के अन्दर श्रावक के आचार का विवरण दिया गया है । उस विवरण में सम्यक्त्व, व्रत, पोषध, मुनि को आहार अदि देना- इनका उल्लेख है, लेकिन कहीं भी जिन-भवन बनवाना, प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाना, प्रतिमा-पूजन करना आदि का उल्लेख नहीं है। इससे यह फलित होता है कि वीतराग और गणधरों को प्रतिमा, प्रासाद मान्य नहीं थे । यदि होते तो श्रावक के आचार सम्बन्धी इस आलापक में उसका उल्लेख होना चाहिए था (मूल में भगवती का सारा सन्दर्भ दिया हुआ है।)
४४. चौवालिसवें बोल में वे लिखते हैं कि श्रावक को क्या भावना भानी चाहिए, अर्थात् किन मनोरथों का चिन्तन करना चाहिए । इस विषय से सम्बन्धित 'स्थानांग' के आलापक (विषय विवेचन) में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि श्रावक को जिन-भवन बनवाना चाहिए, प्रतिमा बनवानी अथवा प्रतिष्ठित करवानी चाहिए अथवा गिरनार या शत्रुजय की यात्रा करनी चाहिए । इसका मतलब ये है कि ये क्रियायें आगम सम्मत नहीं हैं।
४५. लोकाशाह लिखते हैं कि 'आचारांग' के दूसरे अध्ययन के दूसरे उद्देशक में यह बताया गया है कि व्यक्ति किन कारणों से हिंसा करता है, साथ ही यह भी कहा गया है कि मुनि इन कारणों से हिंसा नहीं करते हैं । इस आलापक विवरण में स्पष्ट कहा गया है कि लोग सांसारिक उद्देश्यों एवं धार्मिक उद्देश्यों से भी हिंसा करते हैं, किन्तु मुनि इस प्रकार की हिंसा नहीं करता है, न करवाता है और न उसका अनुमोदन ही करता है।
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