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लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति
१३९ आदि में यक्षों के यक्षायतनों का विस्तार से उल्लेख किया गया है, किन्तु किसी भी नगर के अथवा उद्यान के विवरण में कहीं भी जिन-भवन और जिन-प्रतिमा का उल्लेख नहीं है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि भगवान महावीर के समय में यक्षायतन ही थे, जिनभवन या जिन-मन्दिर नहीं थे।
५७. लोकाशाह इस बोल में कहते हैं कि कुछ लोगों का यह कहना है कि चाहे आगमों में जिन-भवन, जिन-प्रतिमा आदि के उल्लेख नहीं हैं, किन्तु नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति और टीकाओं में तो ऐसे उल्लेख पाये जाते हैं जो सभी प्रमाण है। इस सम्बन्ध में लोकाशाह का कहना है कि जिन ग्रन्थों में आगमों के विरुद्ध बातें कही गयी हों उन्हें प्रमाण कैसे माना जा सकता है? उदाहरणस्वरूप 'आवश्यकनियुक्ति में यदि किसी मुनि का स्वर्गवास पंचक में होता है तो जितने दिन का पंचक हो उतने घास के पुतले बनाकर रखने का उल्लेख है । साधु के लिए इस प्रकार का कृत्य आगम के अनुकूल तो नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार ‘बृहत्कल्पभाष्य' में यह कहा गया है कि जिन-भवन में चींटी, भ्रमर-भ्रमरी आदि के घर हो तो साधु अपने हाथों से परिहार करे, यदि नहीं करता है तो उसे प्रायश्चित्त आता है । इसी प्रकार चूर्णि, भाष्य आदि में अनेक स्थानों पर अपवाद मार्ग के रूप में आगमों के विरुद्ध कार्य करने के उल्लेख हैं। जिन ग्रन्थों में आगम के विरुद्ध आचार का उल्लेख हो, उन्हें प्रमाण कैसे माना जा सकता है?
५८. इस बोल में लोकाशाह कहते हैं कि जो अनन्त जीव मोक्ष को प्राप्त हुए, वर्तमान में जो मोक्ष प्राप्त होते हैं अथवा भविष्य में जो प्राप्त होंगे, वे सभी अहिंसा, संयम आदि के माध्यम से ही सिद्ध होते हैं अर्थात् जीवदया ही मोक्ष का कारण है । पूजा, प्रतिष्ठा, जिन-भवन निर्माण आदि कार्य जिनमें जीवहिंसा होती है, मोक्ष के साधन किस प्रकार हो सकते हैं?
यदि हम लोकाशाह की इन चारों कृतियों के मुख्य प्रतिपाद्य पर विचार करें तो ऐसा लगता है कि सर्वप्रथम लोकाशाह द्वारा पूछे गये तेरह प्रश्नों में मुख्यतया प्रतिमा के वन्दन, पूजन आदि का निषेध किया गया है। पुन: उनकी दूसरी कृति यह किसकी परम्परा' में लोकाशाह ने मुख्य रूप से उस युग में प्रचलित और यति परम्परा के द्वारा मान्य ५४ बातों पर प्रश्न चिह्न लगाये हैं और उन पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए उन्होंने पूछा है कि इन सारी बातों का आगमिक आधार क्या है? इसी प्रकार 'चौतीस बोल' में मुख्य रूप से नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका एवं प्रकरण ग्रन्थों के आगम विरुद्ध प्रतिपादनों का उल्लेख करते हुए यह प्रश्न-चिह्न खड़ा किया है कि जिन ग्रन्थों में आगम विरुद्ध कथन हों उनको किस प्रकार प्रमाण रूप से मान्य किया जा सकता है। इस प्रकार उन्होंने नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति और टीका की अप्रामाणिकता को सिद्ध किया है । लोकाशाह ने 'अट्ठावन बोलों की हुंडी' में मुख्य रूप से तीर्थ, जिन-भवन, प्रतिमा-प्रतिष्ठा और प्रतिमा-पूजन की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए यह कहा है कि ये प्रवृत्तियाँ हिंसा से
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