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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास और नियम ग्रहण की कोटि एवं भंग आदि का वर्णन करके सभी अनुयोगों का एक साथ बोध करा देने की परम्परा थी। किन्तु इस परम्परा को सरल करते हुए आर्य रक्षित ने प्रधान अनुयोग को रखकर शेष अन्य गौण अर्थों का प्रचलन बन्द कर दिया, यथा ग्यारह अंगों और छ: सूत्रों का समावेश चरणानुयोग में, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि का गणितानुयोग में और दृष्टिवाद का समावेश द्रव्यानुयोग में किया। इनके छ: प्रमुख शिष्य थे- दुर्बलिकापुष्यमित्र, घृतपुष्यमित्र, वस्त्रपुष्यमित्रः फल्गुरक्षित, विन्ध्य और गोष्ठामहिल। आर्य रक्षित २२ वर्ष तक गृहस्थ जीवन, ४४ वर्ष तक सामान्य मुनि जीवन और १३ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य पद पर रहे। इनका कुल संयमी जीवन ५७ वर्ष का रहा। इस प्रकार ७५ वर्ष की आयु पूर्ण कर वी०नि० सं० ५९७ में स्वर्गस्थ हुये। आर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र
इनका जन्म वी०नि०सं. ५५० में एक बौद्ध परिवार में हुआ था। इनके गृहस्थ जीवन के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। दीक्षोपरान्त इन्होंने अपने गुरु से आगमों व पूर्वो का अध्ययन किया था- ऐसा उल्लेख मिलता है। १७ वर्ष की आयु में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। इस आधार पर इनका दीक्षा वर्ष वी०नि०सं० ५६७ होना चाहिए। संयमी जीवन के ५० वर्ष में ये ३३ वर्ष तक आचार्य पद पर रहे और १७ वर्ष सामान्य मुनि जीवन व्यतीत किया। वी०नि० ६१७ में ये स्वर्गस्थ हुए। आचार्य हस्तीमलजी ने इनके आचार्यत्व काल की दो प्रमुख घटनाओं को प्रस्तुत किया है
१. इनके आचार्यकाल में प्रतिष्ठानपुर के अधिपति सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णी ने आर्यधरा से शक-शासन का अन्त कर शालिवाहन संवत्सर की स्थापना की जो विगत १९ शताब्दियों से आज तक भारत के प्राय: सभी भागों में प्रचलित है।
२. इनके आचार्य के काल में जैन संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो भागों में विभक्त हो गया। आर्य वज्रसेन,
इनका जन्म वी०नि० ४९२ में हुआ। इनके जन्म एवं कुल के विषय में इसके अतिरिक्त कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती हैं। वी०नि० ५०१ में नौ वर्ष की उम्र में आर्य सिंहगिरि के पास इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। आर्य सिंहगिरि आर्य सुहस्ती की कोटिकगण के थे। वी०नि० ५९२ में आर्य वज्रसेन सोपारक नगर पधारे तब वहाँ के श्रेष्ठी जिनदत्त ने अपनी पत्नी और चारों पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। उत्तरकालीन मान्यता के अनुसार जिनदत्त के प्रथम पत्र नागेन्द्र से नागेन्द्रकुल या नाइली शाखा, चन्द्रमुनि से चन्द्रकुल, विद्याधर मुनि से विद्याधर कुल और निवृत्ति मुनि से निवृत्ति कुल की उत्पत्ति हुई। वी०नि० ६१७ में आर्य वज्रसेन ने युगप्रधानाचार्य के दायित्व को सम्भाला। ये मात्र तीन वर्ष ही आचार्य पद पर आसीन रहे। इनकी कुल मुनि पर्याय
११९ वर्ष की थी। १२८ वर्ष की आयु में वी०नि० ६२० में ये स्वर्गवासी हुये। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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