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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
२९. इसी प्रकार यदि शीघ्रता हो तो वह अदत्त सचित्त जल भी ग्रहण कर सकता । जहाँ सिद्धान्त में सचित्त जल या पृथ्वी के ग्रहण का निषेध किया गया है वहाँ 'आवश्यक निर्युक्ति' में उसका समर्थन देखा जाता है । विज्ञजन विचार करें ?
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३०. कार्य पड़ने पर दीपक की रोशनी करें और कार्य पूरा हो जाने पर उसे बुझाकर बत्ती को निचोड़ देवें ।
३१. इसी प्रकार वायुकाय के आरम्भ का भी उसमें उल्लेख मिलता है । कहा गया है कि मशक को वायु से भरें ?
३२. कारण पड़ने पर ग्लान आदि के लिए सचित्त अदत्त कन्द आदि ले लें। इस प्रकार जिन 'आवश्यकनियुक्ति' आदि ग्रन्थों में अयुक्त कथन किये गये हों, उन्हें चौदह पूर्वधारियों की कृति कैसे माना जा सकता है ।
३३. कारण पड़ने पर नपुंसक को दीक्षा देना और उसे आगम का अन्यथा अर्थ बताना। उसके (नपुंसक के) अध्ययन करते समय दूसरे साधु भी उसके प्रति झूठ बोलकर कहें कि हमने भी ऐसा ही पढ़ा है। इस प्रकार उसे चोरी से रखकर तथा झूठ बोलकर फिर कार्य पूर्ण होने पर उसे बाहर निकाल दे और दीवान आदि के पास जाकर कहे कि इसे हमने दीक्षा नहीं दी, इसके सिर पर चोटी है। यह आगम के पाठ भी अन्यथा रूप में जानता है। इस प्रकार जिन ग्रन्थों में कपट करने के लिए कहा गया हो वे प्रमाण कैसे हो सकते हैं?
३४. जिनमें अनेक ऐसी अनुचित बाते कहीं गयी हों उन निर्युक्ति आदि को चौदह पूर्वधर आदि के द्वारा रचित मानकर कैसे विश्वास किया जा सकता है? विज्ञ मनुष्य को तो ऐसे ही सिद्धान्तों पर ही विश्वास करना चाहिए जो इहलोक और परलोक में सुख दे | जो प्रतिमा मानते हैं और पञ्चांगी को प्रमाण कहते हैं । उनको समझाने के लिए ही ये सब लोकामत की युक्तियाँ लिखी गयी हैं । लोकाशाह के अट्ठावन बोल की मान्यतायें (भावार्थ) *
१. लोकाशाह ने अपने 'अट्ठावन बोल की हुंडी' में सर्वप्रथम 'आचारांग' के सम्यक्त्व-प्रकरण के आधार पर यह बताया है कि भगवान् महावीर ने अहिंसा को शुद्ध और शाश्वत धर्म कहा है और इस शाश्वत धर्म का पालन मुनि और गृहस्थ दोनों को ही करना चाहिए। जिस व्यक्ति को अहिंसा के स्वरूप का बोध नहीं हो, उसको धर्म का भी बोध नहीं हो सकता । इस प्रकार अहिंसा या दया ही धर्म का मूल है। कुछ लोग हिंसा में धर्म मानते हैं, किन्तु हिंसा में धर्म नहीं होता है।
२. 'आचारांग ' के सम्यक्त्व - प्रकरण अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में कहा गया
* अट्ठावन बोल की हुंडी (मूल) परिशिष्ट में देखें
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