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लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति
१२७ कुछ लोग कहते हैं कि जिनालय और जिन-प्रतिमा को धूप आदि देना धर्म कार्य है। इसके उत्तर में लोकाशाह कहते हैं कि यदि भगवान् जिन-मन्दिर, जिन-प्रतिमा आदि को तीर्थ कहते तो फिर उन्हें मागध, वरदान, प्रभास आदि को तीर्थ न कहकर कुतीर्थ कहना चाहिए । गणधर ने जिसे तीर्थ कहा उसकी तीर्थ रूप में आराधना नहीं की। गणधर ने आगम में पूर्णभद्र यक्ष के सन्दर्भ में यह तो कहा है कि पूर्णभद्र यक्ष दिव्य है, सत्य है किन्तु उन्होंने उसकी आराधना नहीं की है। इसी प्रकार उन्होंने यह तो कहा कि गोशालक अपने श्रावकों के लिए अरहंत रूप में मान्य हैं। किन्तु उन्होंने यह नहीं कहा कि गोशालक श्रावकों की अपेक्षा से कुदेव हैं। इसका तात्पर्य है कि उन्होंने संसार में जो वस्तु जिस रूप में जानी गयी है उसी रूप में उसे कहा है। ज्ञातासूत्र के द्रौपदी अध्ययन की वृत्ति में यह कहा गया है कि एक वाचना के अनुसार केवल इतना ही पाठ है- 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेति।' इसमें जिनघर आदि का उल्लेख भी नहीं है ।
यदि यह कहा जाये कि प्रतिमा-पूजन के समय द्रौपदी सम्यक्-दृष्टि थी, क्योंकि द्रौपदी ने नारद को असंयमित और अविरत कहा है। किन्तु हम देखते हैं कि आगम में तो यह भी उल्लेख है कि अन्य तैर्थिकों ने गौतम स्वामी तक को असंयत और अविरत कहा है। अत: किसी के अविरत या असंयत कहने से कोई सम्यक्-दृष्टि है, ऐसा नहीं माना जा सकता है । अन्यथा कुतीर्थिकों को भी सम्यक्-दृष्टि मानना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि जिन-प्रतिमा का पूजन करते समय द्रौपदी को सम्यक्-दृष्टि नहीं माना जा सकता है।
८. भगवान् महावीर ने आगम ग्रन्थों में पंचमहाव्रतों के पालन का फल, पाँच समिति और तीन गुप्ति के पालन का फल, दशविध सामाचारी के पालन का फल, प्रासुक आहार देने का फल, वैयावच्च का फल, चारित्र के पालन का फल, श्रावक के बारह व्रतों का फल, सामायिक चतुर्विंशतिस्तव आदि षडावश्यकों का फल बताया है, लेकिन कहीं भी जिन-प्रतिमा-पूजन, जिन-प्रतिमा-प्रतिष्ठा, जिन-प्रतिमा के वन्दन आदि का फल नहीं बताया है। यदि उन्हें प्रतिमा-पूजन इष्ट होता तो उसके फल की चर्चा भी करते । सुज्ञजन इस बात पर विचार करें?
९. जीवाजीवाभिगमसूत्र के लवणसमुद्र नामक अधिकार में यह प्रश्न पूछा गया है कि यदि लवणसमुद्र इतनी उत्ताल तरंगों से आगे बढ़ता है तो वह किसी भी समय इस संसार को डूबा भी सकता है । इसके उत्तर में यह कहा गया है कि बलदेव, वासुदेव, विद्याधर, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका आदि के भद्रिक प्रकृति के कारण ही यह लवणसमुद्र भरत क्षेत्र को डूबा नहीं पाता है । यदि प्रतिमा-पूजन का कोई फल होता तो यहाँ यह कहा जाता कि जिन-भवन और जिन-प्रतिमाओं के कारण ही यह जम्मूद्वीप नहीं डूब पाता है, किन्तु ऐसा न कहकर जम्मूद्वीप के नहीं डूबने का कारण कुछ लोगों की भद्रिक प्रकृत्ति को ही कहा गया है। यदि प्रकृति से भद्र व्यक्ति का इतना प्रभाव बताया गया है तो फिर प्रतिमा का प्रभाव क्यों नहीं बताया गया? विज्ञजन इस पर विचार करें?
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