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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास पश्चात् चूर्णियों के कर्ता के रूप में अगस्त्यसिंह, जिनदासगणिमहत्तर, प्रलम्बसूरि आदि के नामों का उल्लेख हैं। चूर्णियाँ प्राय: ७वीं शताब्दी की हैं, अत; इनका काल भी ७ वीं शताब्दी मानना होगा। इसी काल में तत्त्वार्थसूत्र की टीका के कर्ता के रूप में सिद्धसेनगणि का उल्लेख भी उपलब्ध होता है। ८ वीं शताब्दी में हमें श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र का नाम मिलता है। आचार्य हरिभद्र अनेक ग्रन्थों के कर्ता हैं। उन्होंने आगमिक टीकाओं के अतिरिक्त भी ‘शास्त्रवार्तासमुच्चय' 'षडदर्शनसमुच्चय', 'अष्टकप्रकरण', षोडशकप्रकरण', विंशतिविंशिका', 'योगदृष्टिसमुच्चय', 'योगविंशिका', 'योगशतक', 'योगविन्दु' आदि ग्रन्थों की रचना की है। आचार्य हरिभद्र ने अपने गुरु के रूप में जिनभट्ट या जिनभद्र का उल्लेख किया है। इनके पश्चात् ९ वीं शताब्दी में हमें 'कुवलयमाला' के कर्ता के रूप में उद्योतनसरि का, 'न्यायावतार' की टीका कर्ता के रूप में सिद्धर्षि का उल्लेख मिलता है। इसके पश्चात् १०वी - ११वी शताब्दी में जिन प्रमुख आचार्यों का हमें उल्लेख मिलता है उनमें 'आचारांग' और 'सूत्रकृतांग' के टीकाकार तथा 'चउपण्णमहापुरुषचरियं' के कर्ता शीलांक प्रमुख हैं। इनके पश्चात् खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार वर्धमानसूरि, संवेगरंगशाला के कर्ता के गुरु जिनेश्वरसूरि और नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि का तथा जिनचन्द्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि आदि खरतरगच्छीय परम्परा के आचार्यों के नाम मिलते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में गच्छों के उल्लेख लगभग १०वीं शताब्दी से ही पाये जाते हैं। उससे पूर्व आचार्यों के नाम के साथ मुख्यतया चन्द्रकुल, निवृत्तिकुल, विद्याधरकुल आदि के ही उल्लेख मिलते हैं। गच्छों की परम्परा में सर्वप्रथम खरतरगच्छ का उल्लेख है। अभयदेवसूरि को खरतरगच्छ वाले अपनी परम्परा का मानते हैं, लेकिन वे उसकी पूर्वज परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं। यहाँ हमारा प्रयोजन तो मात्र भगवान् महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष बाद देवर्द्धि से लेकर लोकाशाह के पूर्व तक की श्वेताम्बर परम्परा के प्रमुख आचार्यों का ही निर्देश करना है।
साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर ९वीं शताब्दी में हमें वप्पभट्टसूरि का उल्लेख भी उपलब्ध होता है। ये एक प्रभावक आचार्य रहे हैं और इनके द्वारा प्रतिष्ठित मन्दिर
और मूर्तियों के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पूर्णतल्लगच्छीय कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के गुरु के रूप में देवचन्द्रसूरि का नाम पाया जाता है। इसी काल में अनेक प्रसिद्ध रचनाकार जैन आचार्य हुये, उनमें 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' व 'स्याद्वादरत्नाकर' के कर्ता के रूप में बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि का उल्लेख मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र १२वीं शती के एक प्रमुख आचार्य थे। 'सिद्धसेन व्याकरण के अतिरिक्त इनके द्वारा रचित 'योगशास्त्र' 'त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र' आदि अनेक ग्रन्थ हैं। इनके ज्येष्ठ समकालिक मलधारगच्छीय एक अन्य हेमचन्द्र का भी उल्लेख मिलता है जो विशेष रूप से आगमिक ग्रन्थों के टीकाकार रहे हैं। तेरहवीं
शती में मलयगिरि नामक प्रसिद्ध आचार्य हुये हैं जिन्होंने आगमों के अतिरिक्त अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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