________________
आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक ग्रन्थों पर भी टीकाएं लिखी हैं। इसी काल में श्वेताम्बर परम्परा में आर्य रक्षितसूरि के द्वारा अंचलगच्छ की स्थापना हुई। अंचलगच्छ की स्थापना वि०सं० ११६९ या ई० सन १११३ में मानी जाती है। यह गच्छ वर्तमान में भी अवस्थित है। इसी काल में शीलगुणसूरि ने, जो चन्द्रकुल या चन्द्रगच्छ में दीक्षित हुये थे, आगमिक गच्छ की स्थापना की। इसका एक नाम त्रिस्तुतिक गच्छ भी था। आगमिक गच्छ मुख्यतया शासन देवी-देवताओं की स्तुति का पक्षधर नहीं है। आगमिक गच्छ के आचार्य प्रायः जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी नहीं करवाते थे। ज्ञातव्य है कि वर्तमान में त्रिस्तुतिक संघ के रूप में यह परम्परा आचार्य राजेन्द्रसूरिजी द्वारा पुन: पुनर्जीवित की गयी है। इसी क्रम में १३ वीं शती के उत्तरार्ध में आचार्य जगतचन्द्रसूरि ने तपागच्छ की स्थापना की। इस प्रकार हम देखते है कि १३वीं शती में श्वेताम्बर परम्परा में अनेक प्रमुख गच्छों का आविर्भाव हुआ था। इसी काल में मलयगिरि के अतिरिक्त आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्रसूरि, महेन्द्रसूरि, वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि, देवप्रभ के शिष्य सिद्धसेनसूरि आदि अनेक आचार्य हुये जिन्होंने विपुल परिमाण में साहित्य की रचना की। ११वीं से १३वीं शती में जन्में खरतरगच्छ, अचलगच्छ, आगमिकगच्छ और तपागच्छ १४ वीं शती में भी सक्रिय रहे। किन्तु ऐसा लगता है कि ये सभी गच्छ, जो मुख्य रूप से क्रियोद्धार के माध्यम से कठोर आचार के प्रतिपादक रहे थे, वे धीरे-धीरे शिथिल हो रहे थे और उनमें यति परम्परा और चैत्यवास का विकास हो रहा था। १४वीं शती में पाँच नवीन कर्मग्रन्थों के कर्ता तापगच्छ के संस्थापक जगतचन्द्रसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि हुये। नव्य कर्मग्रन्थ के अतिरिक्त भी इनकी विभिन्न कृतियाँ उपलब्ध होती हैं। इसी काल में खरतरगच्छ परम्परा के जिनप्रभसूरि, राजगच्छीय धर्मधोषसूरि आदि अनेक आचार्य हुये जिन्होंने अपनी कृतियों से जैन साहित्य को संबद्ध किया। १५वीं-१६वीं शती में जैन आचार्यों के द्वारा साहित्य रचना के क्षेत्र में तो पर्याप्त कार्य हुआ। इस काल में तपागच्छ में हीरविजयसूरि, खरतरगच्छ में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि, समयसुन्दर आदि अनेक प्रभावक जैन मुनि भी हुये। किन्तु आचार के क्षेत्र में शैथिल्यता का वर्चस्व होता गया और ये सभी परम्परायें धीरे-धीरे चैत्यवास और यति परम्परा में परिणित हो गयीं । इन्हीं के विरुद्ध लोकाशाह ने अपनी क्रान्ति का उद्घोष किया था।
देवर्द्धि के पश्चात से लेकर लोकाशाह के पूर्व तक की पट्ट-परम्परा के सम्बन्ध में अनेक मतभेद और विप्रतिपत्तियाँ देखी जाती है। विविध पट्टावलियों में इस काल के बीच हुये आचार्यों की जो सूचियाँ मिलती हैं वे सब कुछ नामों को छोड़कर अलगअलग ही हैं। सामान्य जानकारी के लिए हम यहाँ कुछ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक और स्थानकवासी परम्परा की पट्टावलियों के आधार पर पट्ट-परम्परा का उल्लेख करेंगे।
Jain Education International.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org