________________
९१
आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक वराहमिहिर के भाई हैं, जिन्हें सामन्यतया द्वितीय भद्रबाहु के नाम से जाना जाता है । निर्युक्तियों के कर्ता के रूप में हमने भद्रगुप्त, आर्य भद्र और गौतम गोत्रीय आर्य भद्र की संभावनाओं पर भी विचार किया है, ये तीनों नाम भी कल्पसूत्र स्थविरावली में उपलब्ध है। यदि भद्रबाहु द्वितीय को नियुक्तियों का कर्ता माना जाता है तो वे देवर्द्धि के पश्चात् की परम्परा में आते है। देवर्द्धि के पूर्व निर्मित ग्रन्थों में 'तत्त्वार्थसूत्र' के कर्ता के रूप में उमास्वाति का उल्लेख मिलता है । 'तत्त्वार्थसूत्र' के स्वोपज्ञभाष्य में उमास्वाति ने अपने दीक्षा गुरु और शिक्षागुरु की परम्पराओं का उल्लेख किया है। उन्होंने अपने दीक्षा प्रगुरु शिवश्री एवं गुरु घोषनन्दी क्षमण का तथा शिक्षा गुरु के रूप में वाचक क्षमणमुण्डपाद के शिष्य वाचक मूल का उल्लेख किया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के पश्चात् इस काल का दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'द्वादशारनयचक्र' है। इसके कर्ता आर्य मल्लवादी है। इनके सम्बन्ध में और विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । इनके पूर्व श्वेताम्बर परम्परा में 'सन्मतितर्क' और 'द्वात्रिंशिकाओं' के कर्ता के रूप में सिद्धसेन दिवाकर का उल्लेख आता है। सिद्धसेन दिवाकर के गुरु आर्य वृद्धवादी माने जाते हैं। आर्य वृद्ध का उल्लेख कल्पसूत्र की स्थविरावली में है जबकि सिद्धसेन का उल्लेख इन दोनों स्थविरावलियों में नहीं है, किन्तु अन्य स्रोतों से यह निश्चित हो जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर देवर्द्धि से पूर्ववर्ती ही हैं। इसके अतिरिक्त ‘पउमचरियं' के कर्ता के रूप में आर्य विमलसूरि का भी उल्लेख मिलता है। हमारी जानकारी में इन ग्रन्थों के अतिरिक्त इस काल के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अन्य कोई अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से हमें देवर्द्धिगणि से लेकर लोकाशाह तक मध्यकाल के जिन प्रमुख प्रभावक आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं उनके भी दो ही आधार हैं- साहित्यिक और अभिलेखीय । इनमें हम मुख्यतः साहित्यिक आधार की चर्चा करेंगे।
साहित्यिक आधार पर हमें दो प्रकार की सूचनायें उपलब्ध होती हैं- १. ग्रन्थकर्ता और उसमें उल्लेखित उनकी अपनी गुरु परम्परा और २. ग्रन्थ में उल्लेखित समकालिक या पूर्ववर्ती किसी आचार्य / मुनि आदि के नाम । देवर्द्धि के पश्चात् ग्रन्थकर्ता की दृष्टि से विचार करने पर सर्वप्रथम हमारे सामने आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियाँ आती हैं। नियुक्तियों के कर्ता के रूप में यदि वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु को स्वीकार किया जाये तो उनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी का आधार प्रबन्ध साहित्य ही है। यद्यपि प्रबन्ध साहित्य की कमी है कि उसमें पौर्वात्य गोत्रीय आर्य भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु के कथानको में बहुत कुछ मिलावट कर दी है, फिर भी श्वेताम्बर और दिगम्बर स्रोतों से इतना अवश्य माना जा सकता है कि देवर्द्धिगणि के पश्चात् वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु नामक कोई आचार्य हुये हैं। जहाँ तक भाष्य साहित्य का प्रश्न है तो भाष्यों के कर्ता के रूप में संघदासगणि और जिनभद्रगणि के उल्लेख हमें मिलते हैं। संघदासगणि को 'वसुदेवहिण्डी' का भी कर्ता माना गया है। इन दोनों का काल लगभग ६ठी शती सुनिश्चित होता है। इनके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org