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आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक
१०७ अपने को अपनी पूर्व परम्परा से जोड़कर रखा है। चाहे आचार और विचार के क्षेत्र में उनके अपनी पूर्व परम्पराओं से मतभेद रहे हों, फिर भी वे उस पूर्वधारा को अस्वीकार नहीं करते। अत: उन्होंने अपनी पूर्व परम्परा के रूप में जिन पट्टावलियों को स्वीकार किया है उन्हें हम पूरी तरह से अप्रमाणिक कह कर अस्वीकार भी नहीं कर सकते। यही कारण है कि हमने परम्परा के अनुसार ही इन पट्टावलियों को यहाँ प्रस्तुत किया है। इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता के सन्दर्भ में इससे अधिक कुछ कहना भी कठिन है।
सन्दर्भ १. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग-२, पृ०-५९५ २. सौगतोपासकास्ते च सूरिपार्श्वे समाययुः........चरितम्, प्रभावकचरित, पृ०-११६ ३. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग-२, पृ०-६०३ ४. वही, पृ०- ६३ ५. वही, पृ०- ६५६ ६. वही, पृ०-६७५ ७. सत्थ जाणिया अजाणिया य अरिहा। एवं कतमंगलोवयारो थेरावलिकमे यदंसिए
अरिहेसु य दंतेसु दुस्सगणि सीसो देववायगो साहुजगहिट्ठाए इणमाह। नन्दीचूर्णि, पत्र-१३ ८. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, पृ०-३४६ ९. वर्तमान में भी त्रिस्तुतिक नाम से एक स्वतंत्र शाखा है किन्तु वह अपनी उत्पत्ति
आगमिक गच्छ से नहीं अपितु तपागच्छ से मानता है।
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