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आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक शिवभूति और आर्यकृष्ण इन चार आचार्यों का पट्टपरम्परा में होना सम्भव नहीं लगता है। सम्भावना यही लगती है कि इसमें उल्लेखित धनगिरि, आर्यवज्र के पिता ही हों। फल्गुमित्र भी उन्हीं के समकालीन हों। आर्यवज्र के पश्चात् आर्यकृष्ण ही पट्टधर बने। आर्य शिवभूति ने वस्त्र सम्बन्धी विवाद को लेकर आर्यकृष्ण से अलग होकर बोटिक या यापनीय परम्परा की स्थापना की। पुन: यह भी विचारणीय है कि आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि और आर्य शिवभूति का आचार्य के रूप में कोई भी पट्टावली उल्लेख नहीं करती है। यह केवल शिष्य परम्परा ही रही। कल्पसत्र' स्थविरावली में आर्य रह (आर्यरथ) का जो उल्लेख मिलता है वह भी हमारी दृष्टि में भ्रान्तिपूर्ण है। हमें यह लगता है कि आर्यरह आर्य रक्षित ही होने चाहिए, क्योंकि सभी पट्टावलियाँ आर्यवज्र के पश्चात् आचार्य रूप में आर्यरक्षित का ही उल्लेख करती हैं। 'कल्पसूत्र' की गाथा विभागवाली पट्ट-परम्परा फल्गुमित्र, धनगिरि, शिवभूति, दुष्यन्तकृष्ण, आर्य रक्षित पाठान्तर से आर्यभद्र और नक्षत्र आदि जिन नामों को प्रस्तुत कर रही हैं वे उस काल के विशिष्ट मुनि हो सकते हैं, क्योंकि पट्ट-परम्परा में आर्यवज्र के पश्चात् आर्य रक्षित का ही नाम आता है। 'कल्पसूत्र' की गाथा विभागवाली स्थविरावली में उनका उल्लेख काश्यपगोत्रीय आर्यरथ के रूप में हुआ है। 'कल्पसूत्र' स्थविरावली काश्यपगोत्रीय आर्य रथ के पश्चात् जो क्रम प्रस्तुत करती है उसमें गौतमगोत्रीय आर्य नाग (नागहस्ती), वशिष्ठगोत्रीय आर्य जेहिल (जेष्ठिल), माठरगोत्रीय आर्य विष्णु, गौतम गोत्रीय आर्यभद्र और गौतमगोत्रीय आर्यवृद्ध का उल्लेख है। हमारी दृष्टि में आर्य वृद्ध सिद्धसेन दिवाकर के गुरु ही हो। आर्यभद्र के पश्चात् काश्यप गोत्रीय आर्य संघपालित, काश्यपगोत्रीय आर्य हस्ती और आर्य धर्म का उल्लेख करती है। इस गाथा विभाग की अग्रिम गाथा में पुन: शिव साधक काश्यप गोत्रीय आर्य धर्म का उल्लेख हुआ हैं। हमारी दृष्टि में काश्यप गोत्रीय दो आर्य धर्म अलग व्यक्ति नहीं हैं, अन्त में देविर्द्धगणि क्षमाश्रमण का उल्लेख करके यह परम्परा समाप्त होती है। आर्य, रक्षित.
आर्य रक्षित का जन्म मध्यप्रदेश के मालवान्तर्गत दसपुर (मंदसौर) में हुआ था। ये जाति से ब्राह्मण थे। इन पिता का नाम श्री सोमदेव और माता का नाम रूद्रसोमा था। आर्य फल्गुरक्षित आपके लघुभ्राता थे। वल्लभी युगप्रधान पट्टावली के अनुसार इनका जन्म वी०नि०सं० ५२२ में माना जाता है।
आर्य वज्रस्वामी के पश्चात् आर्य रक्षित युगप्रधानाचार्य हुये। इनके गुरु आर्य तोषलिपुत्र थे। आर्य तोषलिपुत्र किस गण, किस कुल, किस शाखा आदि से सम्बन्धित थे इसकी कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। यहाँ तक कि आर्य रक्षित ने भी कहीं इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया हैं अनुयोगों के पृथक्करण में आर्य रक्षित . का योगदान अविस्मरणीय है। प्राचीनकाल से अपृथकानुयोग वाचना की परम्परा थी, जिसमें प्रत्येक सूत्र पर आचारधर्म, उनके पालनकर्ता, उनके साधना क्षेत्र का विस्तार Jain Education International For Private & Personal Use Only
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