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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास है।"ब्रह्माण्डपुराण में ऋषभदेव को दस प्रकार के धर्मों का प्रवर्तक माना गया है। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को आँठवा अवतार माना गया है। इन उद्धरणों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि ऋषभदेव ऐतिहासिक पुरुष थे वे प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थकर और धर्मचक्रवर्ती थे।
इस प्रकार उनके ऐतिहासिक अस्तित्व के विषय में जो भी साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध होते हैं उनके आधार पर हम इतना तो कह सकते हैं कि वे कोई काल्पनिक व्यक्ति नहीं थे। परम्परा की दृष्टि से उनके सम्बन्ध में हमें जो भी सूचनायें उपलब्ध हैं उनको पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है। उनमें कहीं न कहीं सत्यांश अवश्य है। जहाँ तक जैन ग्रन्थों का प्रश्न है तो उनके जीवनवृत्त का विस्तृत उल्लेख हमें जम्बद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णि एवं जैन पुराणों तथा चरित काव्यों में उपलब्ध होता है। किन्तु विस्तारभय से हम उन समस्त चर्चाओं में न जाकर केवल यह देखने का प्रयत्न करेगें कि भगवान् ऋषभदेव से प्रवर्तित यह श्रमणधारा आगे किस रूप में विकसित हुई।
भगवान् ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्णा अष्टमी को अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में कुलकर वंशीय नाभिराजा व मरुदेवी के यहाँ पुत्र रूप में विनीता नगरी (वर्तमान अयोध्या) में हआ। आपके गर्भावतरण पर माता ने चौदह महास्वप्न देखे जिनमें प्रथम स्वप्न वृषभ था। अत: जन्मोपरान्त माता-पिता ने आपका नाम वृषभ/ ऋषभ रखा। एक मान्यता यह भी है कि नवजात शिशु के वक्ष पर वृषभ का चिह्न था। अत: बालक को ऋषभ कुमार नाम से पुकारा जाने लगा। दिगम्बर परम्परा में आपकी जन्मतिथि चैत्र कृष्णा नवमी मानी जाती है। इस सम्बन्ध में आचार्य देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री का मानना है कि अष्टमी की मध्यरात्रि होने से श्वेताम्बर परम्परा ने अष्टमी लिखा है और प्रात: काल जन्म मानने से दिगम्बर परम्परा ने नवमी लिखा हो।१० आचार्य श्री के ये विचार चिन्तनीय है। ऋषभदेव के जन्म के सन्दर्भ में मध्यरात्रि के आधार पर श्वेताम्बर दिगम्बर मान्यता का समाधान प्रस्तुत करना, समीचीन नहीं जान पड़ता, क्योंकि मध्यरात्रि रात्रि के आधार पर दिन और रात्रि का विभाजन करना पाश्चात्य परम्परा है न कि भारतीय ।
जैन परम्परा के अनुसार भगवान् ऋषभदेव मानव संस्कृति के आद्य प्रवर्तक थे। इन्होंने ही सर्वप्रथम सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात किया। ऋषभदेव से पूर्व कोई सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक मर्यादायें नहीं थी। वंश परम्परा, विवाह परम्परा, राज्य-व्यवस्था, दण्डनीति खाद्य-व्यवस्था, शिक्षा-व्यवस्था, सैन्य-व्यवस्था, वर्णव्यवस्था आदि सभी के आद्य संस्कर्ता ऋषभदेव ही माने जाते है।
'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' के अनुसार ऋषभदेव ने सुनन्दा से विवाह करके विवाह प्रथा का सूत्रपात किया।२१ ऋषभदेव से पूर्व यौगलिक परम्परा थी जिसमें भाईबहन के बीच ही विवाह हो जाता था। ऋषभदेव की दूसरी पत्नी का नाम सुमंगला था।
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