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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास आर्य, स्थूलिभद्र
आर्य स्थूलिभद्र आर्य भद्रबाहु के पश्चात् अष्टम् पट्टधर बने। आर्य स्थूलिभद्र का जन्म पाटलिपुत्र के महामात्य शकटार के यहाँ हुआ था। ये गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। आर्य स्थलिभद्र के लधभ्राता का नाम श्रीयक था। उनकी यक्षा आदि सात बहने थीं। गृही जीवन की शिक्षा के लिए उन्हें कोशा वेश्या के यहाँ भेजा गया था। संयोग से कोशा एवं स्थूलिभद्र एक-दूसरे में इतने अनुरक्त हो गये कि वे निरन्तर बारह वर्षपर्यन्त कोशा के यहाँ ही रहे। कालान्तर में वररुचि ने शकटार से वैर लेने के लिये उनके विरुद्ध षडयन्त्र रचा और शकटार ने पद की रक्षा के लिए स्वयं अपने प्राणों की बलि दे दी। शकटार की मृत्यु के पश्चात् स्थूलिभद्र को महामात्य का पद प्रस्तुत किया गया, किन्तु सारी घटना को जानकर उन्हें वैराग्य हो गया और आत्मकल्याण हेतु उन्होंने सम्भूतिविजय के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। वे भोगी से योगी बन गये। कालान्तर में उन्होंने कठोर ब्रह्मचर्य की साधना की और कोशा को भी श्राविका बना दिया । पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना उन्हीं के नेतृत्व में वी०नि० सं० १६० में सम्पन्न हुई थी। वे वी० नि० सं० १७० में आचार्य बने और वी०नि० सं० २१५ में स्वर्गवासी हुये। आर्य स्थूलिभद्र के दो अन्तेवासी प्रमुख शिष्य थे- एलापत्य गोत्रीय आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति। दोनों क्रमश: आचार्य पद को प्राप्त हुये, किन्तु आगे इनकी शिष्य परम्परा अलग-अलग चली। आर्य महागिरि
आर्य महागिरि के जन्म स्थान, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में हमें विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है। केवल इतना ही ज्ञात होता है कि आर्य महागिरि का गोत्र एलापत्य था। वे ३० वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में रहे, ४० वर्ष तक सामान्य मुनि के रूप में रहे और ३० वर्ष आचार्य पद पर रहे। इस प्रकार १०० वर्ष की आयु में वी०नि० सं० २४५ में वे स्वर्गवासी हुये। आर्य महागिरि कठोर साधक थे। विशुद्ध आचार का परिपालन करते थे। उन्होंने जिनकल्प के अनुसार साधुचर्या करते हुये उग्र तपस्यायें की थीं। अन्त में उन्होंने ऐलकच्छ (दसपुर) के समीप गजाग्रपद नामक स्थान पर अनशन स्वीकार कर वी०नि० सं० २४५ में देहत्याग कर दिया । यद्यपि परम्परा की दृष्टि से आर्य महागिरि के पश्चात् आर्य सुहस्ति आचार्य बनें, किन्तु दोनों की शिष्य परम्परायें भिन्न रहीं। 'कल्पसूत्र' स्थविरावली, “नन्दीसूत्र' स्थविरावली और श्वेताम्बर परम्परा की अन्य पट्टावलियों में आर्य सुधर्मा से लेकर आर्य सुहस्ति तक नामों में समरूपता पायी जाती हैं किन्तु उसके पश्चात् 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली और 'नन्दीसूत्र' की स्थविरावली में अन्तर आता है। आर्य महागिरि के निम्न आठ अन्तेवासी शिष्य हुये- स्थविर उत्तर, स्थविर बलिस्सह, स्थविर धनर्द्धि, स्थविर शिरद्धि, स्थविर कौण्डिन्य, स्थविर नाग, स्थविर नागमित्र और कौशिक गोत्रीय स्थविर
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