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भगवान् ऋषभदेव से महावीर तक क्षत्रियकल में उत्पन्न होते हैं, क्षत्रियेतर कुल में उन्होंने कभी जन्म नहीं लिया। अत: प्रभु के गर्भ का साहरण करके क्षत्रिय कुल में अवस्थित करना चाहिए। इस चिन्तन के पश्चात् इन्द्र ने हरिणैगमेषी देव को बुलाकर महावीर के गर्भ को देवानन्दा की कुक्षि से लेकर राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला की कुक्षि में स्थापित करने का निर्देश दिया। हरिणैगमेषी देव ने निर्देशानुसार सभी कार्य किये । गर्भापहरण एवं प्रस्थापन वाली रात्रि में रानी त्रिशला को चौदह महास्वप्न दिखाई दिये। गर्भापहरण की तिथि आश्विन कृष्णा त्रयोदशी थी।
गर्भकाल पूर्ण होने पर रानी त्रिशला ने उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को मध्यरात्रि में पत्र को जन्म दिया । गर्भ में आने के पश्चात राज्य में धन-धान्य, राजकोष आदि में अधिक वृद्धि हुई, इस कारण बालक का नाम वर्द्धमान रखा गया। बाद में वीर, ज्ञातपुत्र, महावीर, सन्मति आदि कई नामों से आपको सम्बोधित किया जाने लगा। इन सभी नामों में से महावीर नाम ही अधिक प्रचलित हआ।
श्वेताम्बर मान्यतानुसार वसंतपुर के सामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ आपका (वर्द्धमान का) परिणय संस्कार हुआ। यशोदा ने एक पुत्री प्रियदर्शना को जन्म दिया, जिसका विवाह जमालि के साथ हुआ था। दिगम्बर मान्यतानुसार महावीर अविवाहित थे। २८ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् महावीर ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से दीक्षित होने की आज्ञा माँगी, किन्तु आज्ञा न मिलने व स्वजनों के अनुरोध पर महावीर ने दो वर्ष और गृहस्थ जीवन में रहना स्वीकार कर लिया । इन दो वर्षों में भी उन्होंने वैराग्यमय जीवन ही व्यतीत किया। जैन परम्परानुसार वे रात्रि भोजन नहीं करते थे, अचित्त जल पीते थे, भूमि पर सोते थे, काय प्रक्षालन में भी अचित्त जल का ही प्रयोग करते थे, बेले बेले तप करते थे आदि। ३० वर्ष पूर्ण होने पर सभी आभरणों का त्यागकर मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी, दिन के तीसरे प्रहर में महावीर ने पंचमुष्टि लोंच कर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त साढ़े बारह वर्ष तक कठिन तपस्या के पश्चात् जंभिय ग्राम के बाहर ऋजुवालिका नदी के किनारे शालवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला दशमी को उन्हें कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हई । ७२ वर्ष की आयु पूर्ण कर ई० पू० ५२७ में कार्तिक अमावस्या को पावापुरी में आप मोक्ष को प्राप्त हुये । भगवान् महावीर की कुल आयु बहत्तर वर्ष की थी जिसमें तीस वर्ष गृहस्थावस्था में रहे, साढ़े बारह वर्ष तेरह पक्ष छदमावस्था में रहे और तेरह पक्ष कम तीस वर्ष केवली पर्याय में रहे ।
भगवान् महावीर ने किसी नये धर्म का प्रवर्तन नहीं किया, बल्कि पूर्व से चले आ रहे निर्ग्रन्थ धर्म को संशोधित एवं परिवर्धित रूप में जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया । इस तथ्य की पुष्टि उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन से होती है। छद्मस्थावस्था में की गयी साधना
बेला - २२९, तेला-१२, सर्वतोभद्र प्रतिमा-१ (दस दिन), भद्र प्रतिमा एक (दो दिन), महाभद्र प्रतिमा- १ (चार दिन), पाक्षिक उपवास-७२, मासिक १२
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