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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
रामचन्द्रजीका जन्म संवत् १९२४ (सन् १८६७) कार्तिक सुदी पूर्णिमा रविवारके दिन, काठियावाद-मोरवी राज्यके अन्तर्गत ववाणीआ गाँवमें, दशाश्रीमाली वैश्य जातिमें हुआ था। इनके पिताका नाम खजीभाई पंचाण और माताका नाम देवबाई था। राजचन्द्रके एक भाई, चार बहन, दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं । भाईका नाम मनसुखलाल; बहनोंका नाम शिवकुँवरवाई, सबकबाई, मेनाबाई, और जीजीबाई; पुत्रोंका नाम छगनलाल और रतिलाल तथा पुत्रियोंका नाम जवलबाई और काशीबाई था। ये सब लोग राजचन्द्रजीकी जीवित अवस्थामें मौजूद थे। इस समय उनकी केवल एक बहन झबकवाई और एक पुत्री जवलबाई मौजूद है।' तेरह वर्षकी वयचर्या
बालक राजचन्द्रकी सात वर्षतककी बाल्यावस्था नितांत खेलकूदमें बीती थी। उस दशाका दिग्दर्शन कराते हुए उन्होंने स्वयं अपनी आत्मचर्यामें लिखा है.-" उस समयका केवल इतना मुझे याद पड़ता है कि मेरी आत्मामें विचित्र कल्पनायें (कल्पनाके स्वरूप अथवा हेतुको समझे बिना ही) हुआ करती थीं । खेलकूदमें भी विजय पानेकी और राजराजेश्वर जैसी ऊँची पदवी प्राप्त करनेकी मेरी परम अभिलाषा रहा करती थी। वस्त्र पहिननेकी, स्वच्छ रहनेकी, खाने पीनेकी, सोने बैठनेकी मेरी सभी दशायें विदेही थीं। फिर भी मेरा हृदय कोमल था। वह दशा अब भी मुझे याद आती है। यदि आजका विवेकयुक्त ज्ञान मुझे उस अवस्था होता तो मुझे मोक्षके लिए बहुत अधिक अभिलाषा न रह जाती। ऐसी निरपराध दशा होनेसे वह दशा मुझे पुनः पुनः याद आती है।"
राजचन्द्रजीका सात वर्षसे ग्यारह वर्षतकका समय शिक्षा प्राप्त करनेमें बीता था। उनकी स्मृति इतनी विशुद्ध थी कि उन्हें एक बार ही पाठका अवलोकन करना पड़ता था। राजचन्द्र अभ्यास करने में बहुत प्रमादी, बात बनानेमें होशियार, खिलाड़ी और बहुत आनन्दी बालक थे। वे उस समयकी अपनी दशाके सम्बन्ध लिखते हैं:-"उस समय मुझमें प्रीति और सरल वात्सल्य बहुत था। मैं सबसे मित्रता पैदा करना चाहता था । सबमें भ्रातृभाव हो तो ही सुख है, यह विश्वास मेरे मनमें स्वाभाविकरूपस रहा करता था। लोगोंमें किसी भी प्रकारका जुदाईका अंकुर देखते ही मेरा अंत:करण रो पड़ता था। उस समय कल्पित बातें करनेकी मुझे बहुत आदत थी। अभ्यास मैने इतनी शीप्रतासे किया था कि जिस आदमीने मुझे पहिली पुस्तक सिखानी शुरू की थी, उसीको, मैने गुजराती भाषाका शिक्षण ठीक तरहसे प्राप्तकर, उसी पुस्तकको पढ़ाया था। उस समय मैंने कई काव्य-अन्य पड़ लिये थे। तथा अनेक प्रकारके छोटे मोटे इधर उधरके शानअन्य देख गया था, जो प्रायः अब भी स्मृति में हैं। उस समयतक मैंने स्वाभाविकरूपसे भद्रिकताका ही सेवन किया था। मैं मनुष्य जातिका बहुत विश्वासु था । स्वाभाविक सष्टि-रचनापर मुझे बहुत ही प्रीति थी।" . राजचन्द्र के पितामह कृष्णकी भक्ति किया करते थे। इन्होंने उनके पास कृष्णकीर्तनके पदोको तथा
श्रीमद् राजचन्द्र आत्मकथा-परिचय सं. १९९३-हेमचन्द्र टोकरशी मेहता.
१६४-११-१३-अर्थात् प्रस्तुत ग्रंथ ६४ वाँ पत्र, १७३ वा पृष्ठ, २३ वाँ वर्ष, इसी तरह आगे भी समझना चाहिये.
३६४-१७४-२३.
४ श्रीयुत गोपालदास जीवाभाईका कहना है कि राजचन्द्रजीकी माता जैन और पिता वैष्णव थे; इसलिये वे राजचन्द्रजीका कुटुंवधर्म वैष्णव मानते है (श्रीमद् राजचन्द्रना विचारलो पृ. ११)। परन्तु हेमचन्द्र टोकरशी मेहता राजचन्द्रजीके टम्बका मूल धर्म स्थानकवासी जैन लिखते हैं (भीमद् राजचन्द्र भात्मकया परिचय).