Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ६.] सांतर-णिरंतरेण बज्झमाणपयडिपरूवणा
[१७ काओ धुवबंधियपयडीओ ? एदाओ चेव आउचउक्क-तित्थयराहारदुयविरहिदाओ । एदासिं परूवणगाहाओ
णाणंतरायदसयं सण णव मिच्छ सोलस कसाया । भयकम्म दुगुच्छा वि य तेजा कम्मं च वण्णचदू ॥ १५॥ अगुरुअलहु-उबघादं णिमिणं णामं च होंति सगदालं ।
बंधो चउव्वियप्पो धुवबंधीणं पयडिबंधो' ॥ १६ ॥ णिरंतरबंधस्स धुवबंधस्स को विसेसो ? जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थ वि जीवे अणादि-धुवभावेण लब्भइ सा धुववंधपयडी । जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि-अद्धओ अंतोमुहुत्तादिकालावट्ठाई सा णिरंतरबंधपयडी। जिस्से जिस्से पयडीए अद्धाक्खएण बंधवोच्छेदो संभवइ सा सांतरबंधपयडी। असादावेदणीय-इत्थि-णqसयवेद-अरइ-सोग-णिरयगइ-जाइचउक्कहेट्ठिमपंचसंठाण-पंचसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुवि-आदावुज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-थावर
शंका--ध्रुवबन्धी प्रकृतियां कौनसी हैं ?
समाधान-चार आयु, तीर्थकर और दो आहारसे रहित ये उपर्युक्त प्रकृतियां ही ध्रुवप्रकृतियां हैं । इन प्रकृतियोंकी निरूपक गाथायें
ज्ञानावरण और अंतरायकी दश, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय,भयकर्म जुगुप्सा, तैजस और कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुकलघु, उपघात और निर्माण नामकर्म, ये सैंतालीस ध्रुववन्धी प्रकृतियां हैं। इनका प्रकृतिवन्ध सादि, अनादि, ध्रुव एवं अध्रुव रूपसे चार प्रकारका होता है ॥ १५-१६ ॥
शंका-निरंतरबंध और ध्रुवबंधमें क्या भेद है ?
समाधान—जिस प्रकृतिका प्रत्यय जिस किसी भी जीवमें अनादि एवं ध्रुव भावसे पाया जाता है वह ध्रुवबंधप्रकृति है, और जिस प्रकृतिका प्रत्यय नियमसे सादि एवं अध्रुव तथा अन्तर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहनेवाला है वह निरन्तरवन्धप्रकृति है ।
जिस जिस प्रकृतिका कालक्षयसे बन्धव्युच्छेद सम्भव है वह सान्तरबन्धप्रकृति है। असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, जाति चार, अधस्तन पांच संस्थान, पांच संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायो
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१ घादिति-मिच्छ-कसाया भय-तेजगुरुदुग-णिमिण-वण्णचओ। सत्तेतालधुवाणं चदुधा सेसाणयं तु दुधा ॥ गो. क. १२४.
२ प्रतिषु ‘पओञ्जत्थ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'पंचओ ' इति पाठः । छ. बं. ३.
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