Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२८२ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २०८.
समण विदासिं बंधुवरमदंसणा दो । पुरिसवेदस्स सांतर - निरंतरो । कुदेो णिरंतरो ? पम्म-सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुसमिच्छाट्ठि सासण सम्मादिट्ठीस पुरिसवेदस्स निरंतर बंधुवलंभादो । मणुसगइ - मणुसगइपाओग्गाणुपुत्रीणं सांतर - णिरंतरो बंधो। होदु सांत, कुदो णिरंतरो ? ण, सुक्कलेस्सियमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिङिदेवाणं निरंतरबंबुवलंभादो | ओरालिय सरीरअंगोवंगाणं सांतर - निरंतरो । कथं णिरंतरो ? ण णेरइएस सण+कुमारादिदेवेसु च णिरंतर
भादो | देवगर - पंचिंदियजादि वे उच्चियसरीर चे उच्चिय सरीर अंगोवंग देवगइपाओग्गाणुपुत्रि - सत्य विहाय गइ - सुभग- सुस्सर-आदेज्ज - उच्चा गोदाणं सांतर - निरंत। बंधो । कथं णिरंतरो ? ण, असंखेजवासाउअतिरिक्खे -मगुप्तमिच्छाइट्ठि - सास सम्मादिट्टीसु तेउ-पम्म- सुक्कलेस्सियसंखेज्जवासाउअतिरिक्ख मणुसमिच्छाइट्ठि - सासणसम्म दिडीसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । परघा
जाता है । पुरुषवेदका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका - निरन्तर बन्ध कैसे सम्मय है ?
समाधान – क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले तिर्यच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टियों में पुरुषवेदका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायेोग्यानुपूर्वीका सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है । शंका- इनका, सान्तर बन्ध भले ही हो, पर निरन्तर बन्ध कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है । शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, नारकियों तथा सनत्कुमारादि देवों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है । निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? नहीं, क्योंकि, असंख्यात वर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों तथा तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क तिर्यच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध
१ अप्रतौ ' वासाउअस्थितिरिक्ख ' इति पाठः ।
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