Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 418
________________ ३, ३२२.] सणिमग्गणाए बंधसामित्त पादुस्सास-आदावुजोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीरथिराथिर-सुहासुह-सुभग-भग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-णीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो, तेउ वाउकाइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । ___ असण्णीसु पणदालीस पच्चया सव्वपयडीणं, वेउव्वियदुग-चउविहमण-तिविहवचिजोगमाणसासंजमाभावादो । णवरि णिरय-देवाउअ-णिरय-देवगइ-णिरयगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीवेउब्वियसरीर-वेउब्धियसररिअंगोवंगाणं तेदालीस पच्चया, ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो। मणुस्स-तिरिक्खाउआणं चोदालीस पच्चया, कम्मइयपच्चयाभावादो। सादावेदणीय-इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदि-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर - आदेज्ज-जसकित्तीणं बंधो तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं गिरयगइसंजुत्तो । मणुसाउ-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं मणुसगइसंजुत्तो । देवाउ-देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं देवगइसंजुत्तो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ यह संहनन, नारकानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, प्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। तिर्यग्गात, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर और नीचगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, तेज व वायुकायिक जीवोंमें इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। असंही जीवोंमें सब प्रकृतियोंके पैंतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनके वैक्रियिकद्धिक, चार प्रकारका मन, अनुभय वचनयोगके विना तीन प्रकारका वचन योग और मन जनित असंयम प्रत्ययोंका अभाव है। विशेषता यह है कि नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगंति, नरकगति व देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगके तेतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। मनुष्यायु और तिर्यगायुके चवालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, कार्मण प्रत्ययका अभाव है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरन संस्थान, प्रशस्तविहयोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ नरकगतिके बन्धका अभाव है। नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध नरकगतिसंयुक्त होता है। मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है। देवायु, देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। तिर्य गायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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