Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 417
________________ ३८८३ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, ३२२. पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-मिच्छत्त-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-णीचागोद-पंचंतराइय-तिरिक्खगईणं बंधो सोदओ । णिरय-देवाउ-णिरय-देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-णिरय देवगइपाओग्गाणुपुव्वीउच्चागोद-मणुसाउ-मणुसगइदुगाणं परोदओ बंधो । पंचदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-णवणोकसाय-पंचजादि-ओरालियसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-तिरिक्खाणुपुव्वी-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-[अणादेज्ज-] जसकित्ति-अजसकित्तीणं बंधो सोदयपरोदओ, उहयहा वि बंधविरोहाभावादो। उवघाद-परघाद-उस्सासाणं पि सोदय-परोदओ, अपज्जत्तकाले उदएण विणा वि बंधुवलंभादो। पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछ-चउआउ-तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-सत्तणोकसाय-णिरय-मणुस-देवगइ-पंचिंदियजादिवेउब्वियसरीर-छसंठाण-ओरालिय-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-णिरय-मणुस-देवाणुपुव्वी-पर पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण, नीचगोत्र, पांच अन्तराय और तिर्यग्गतिका बन्ध स्वोदय होता है । नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, नरकगति व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र, मनुष्यायु और मनुष्यगतिद्विकका परोदय बन्ध होता है। पांच दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय,पांच जातियां, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, तिर्यगानुपूर्वी, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, सुभग, दुर्भग,सुस्वर, दुस्वर, आदेय, [अनादेय ], यशकीर्ति और अयशकीर्तिका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे भी इनके बन्धका कोई विरोध नहीं है। उपधात, परघात और उच्छ्वासका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उदयके विना भी इनका बन्ध पाया जाता है। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, चार आयु, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायको निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविधामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, नरकगति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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