Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 427
________________ ३९८) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, ३२४. मसंजदसम्मादिविणो बज्झमाणाणं पयडीणं उच्चदे - एदासिं परोदएण बंधो । कुदो, साहावियादो । णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमसत्तीए अभावादो । पच्चया सुगमा। णवरि देवगइ. चउक्कस्स णउंसयपच्चओ णस्थि । तित्थयरस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो। तित्थयरस्स तिरिक्खगईए विणा तिगइअसंजदसम्मादिविणो सामी । सेसाणं तिरिक्ख-मणुसा सामी । बंधद्धाणं बंध. वोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । सादि-अदुवो बंधो, अडुवबंधित्तादो। ___एवं बंधसामित्तविचओ समत्ता । तीर्थकर नामकर्म, इन असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा बध्यमान प्रकृतियों की प्ररूपणा करते हैंइनका परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, एक समयसे इनके बन्धविश्रामशक्तिका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेषता इतनी है कि देवगतिचतुष्कके नपुंसकवेद प्रत्यय नहीं है। तीर्थकर प्रकृतिका देव और मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। तीर्थकर प्रकृतिके तिर्यग्गतिके विना तीन गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके तिर्येच व मनुष्य स्वामी हैं। बन्धावान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। .. इस प्रकार बन्धस्वामित्वविचय समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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