Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 421
________________ ३९२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १२४. कित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधविरोहाभावादो। मणुसगइमणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ । असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ चेव, सोदएण बंधविरोहादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्ठीसु बंधो सोदय-परोदओ, पडिवखुदयदंसणादो । सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदओ चेव, पडिवखुदयाभावादो । पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछ-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । असादावेदणीय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो । पुस्सिवेदस्स मिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो । असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । एवं समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सरआदेज्जुच्चागोदाणं पि वत्तव्वं । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो णिरंतरो, आणदादिदेवसुप्पज्जिय विग्गहगईए वट्टमाणेसु णिरंतरबंधुवलंभादो। परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध मिथ्थादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में परोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है। पंचेन्द्रिय जाति, अस, बादर और पर्याप्तका बन्ध मिथ्याष्टियों में स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उनका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। __पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी हैं। असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है। पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर होता है। असंयतसम्यग्हष्टियोंमें उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। इसी प्रकार समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगांत्रके भी कहना चाहिये । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, आनतादिक 'देवोंमें उत्पन्न होकर विग्रहगतिमें वर्तमान जीवोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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