Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३३८ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २६१.
सोदय-पदओ । श्रीणगिद्धितिय अणंताणुबंधिच उक्क तिरिक्खाउआणं बंधो णिरंतरो । सेसाणं सांत, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो । सव्वपयडीणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु चडवणेगूर्णवंचास पच्चया, ओरालिय मिस्सपच्चयाभावादो | णवरि तिरिक्खाउअस्स ओरालियदुग-वेउब्वियमिस्स-कम्मइय - णवुंसयवेदपच्चया अवणेदव्वा, पज्जत्तदेवे मोत्तूण अण्णत्थ बंधाभावादो । तिरिक्खगइ दुगुज्जोव - चउसंठाण चउसंघडण अप्पसत्थविहायगइ दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचा गोदाणं ओरालियदुगणवंसयवेदपच्चया अवणेयच्या, तिरिक्ख - मणुस्से मोत्तूर्ण देवाणमेदासिं पज्जत्तापज्जत्तावत्थासु बंधुवलंभादो ।
तिरिक्खाउ- तिरिक्खगइदुगुज्जे वाणं बंधो तिरिक्खगइ संजुत्तो। चउसंठाण- चउसंघडण - अप्पसत्थविहायगइ-दूभग- दुस्सर- अणादेज-णीचागोदाणं दुगइसंजुत्तो, णिरय- देव गईणमभावाद। । श्रीगिद्धितिय - अणंताणुबंधिच उक्कित्थिवेदाणं बंधो तिगइसंजुत्ता, णिरयगईए अभावादो | तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइदु गुज्जाव - चउसंठाण - चउसंघडण - अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचा गोदाणं बंधस्स देवा चेव सामी, सुहतिलेस्सियतिरिक्ख - मणुस्सेसु एदासिं
बन्ध होता है । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका बन्ध निरन्तर होता है । शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समय भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है । सब प्रकृतियोंके मिथ्याहा और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे चौवन और उनंचास प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्र प्रत्ययका यहां अभाव है । विशेष इतना है कि तिर्यगाचुके औदारिकहिक, वैक्रियिकमिश्र व कार्मण काययोग और नपुंसक वेद प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, पर्याप्त देवोंको छोड़कर अन्यत्र उसके बन्धका अभाव है । तिर्यग्गतिद्विक, उद्योत, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके औदारिकद्विक एवं नपुंसक वेद प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्यों को छोड़कर देवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें इनका बन्ध पाया जाता है ।
तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक और उद्योतका वन्ध तिर्यग्गति से संयुक्त होता है। चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त विहायोपति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका बन्ध दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, नरक और देव गतिके साथ इनके बन्धका अभाव है । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, यहां नरकगतिके बन्धका अभाव है । तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक, उद्योत, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके बन्धके देव ही स्वामी हैं, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यच व मनुष्यों में इनके
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१ अ- आप्रत्योः ' चउवत्रपणेगूण' इति पाठः ।
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