Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 382
________________ ३, २७२.] सामग्गणाए बंधसामित्तं [३५३ वेउब्वियमिस्स-कम्मइय-इत्थि-णउंसयवेदपच्चया अवणेदव्वा । मणुसगइसंजुत्तो । देवा सामी । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो त्ति बंधद्धाणं । बंधवोच्छिण्णहाणं सुगमं । सादि-अदुवो बंधो, अद्भुवबंधित्तादो। देवाउअस्स पुव्वमुदयस्स पच्छा बंधस्स वोच्छेदो, अप्पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु वेउव्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेयव्वा । देवगइसंजुत्तो बंधो । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति तिरिक्ख-मणुसा सामी । उवीर मणुसा चेव । बंधद्धाणं सुगमं । अप्पमत्तद्धार संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो। देवगइ-वेउव्वियदुगाणं पुवमुदयस्स पच्छा बंधस्स वोच्छेदो, अपुव्वासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्साए उदयवोच्छेदाणुवलंभादो । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । पंचिंदियजादि-तेजा और असंयतसम्यदृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिकद्विक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण काययोग,स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको कम करना चाहिये। मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है । देव स्वामी हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान बन्धाध्वान है। बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम है। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है। देवायुके पूर्व में उदयका और पश्चात् बन्धका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, अप्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। परोदय बन्ध होता है, क्योंक, स्वोदयसे उसके बन्धका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक तिर्यंच व मनुष्य स्वामी हैं। ऊपर मनुष्य ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके पूर्व में उदयका और पश्चात् बन्धका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उनके बन्ध घ उदयका न्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें उनका उदयव्युच्छेद नहीं पाया जाता। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका परोदय बन्ध ...४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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