Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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६, २७४.)
लेस्सामग्गणाए बंधसामिर्च गोदाणि बेढाणपयडीओ । एत्थ अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा । सेसाणं पयडीणं पुवं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, तहोवलंभादो । एदासिं सव्वासिं पयडीणं पि बंधो परोदओ। थीणगिद्धितिय-अणंताणुवंधिच उक्काणं बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । इत्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो। पचया सुगमा । णवरि ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो । इत्थिवेद-चउसंठाण-च उसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं ओरालियदुगित्थि-णउसयवेदपच्चया अवणेयव्वा, सुक्कलेस्साए एदार्सि' बंधाभावादो । थीणगिद्धितिय अणंताणुबंधिचउक्काणं देव-मणुसगइसंजुत्तो । सेसाणं मणुसगइसंजुत्तो, देवगईए सह बंधविरोहादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं तिगइजीवा सामी । सेसाणं पयडीण बंधस्स देवा सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णहाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्टिम्हि चउन्विहो बंधो । सासणे दुविहो, अणाइ-धुवाभावादो। सेसाणं पयडीणं
दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये द्विस्थानिक प्रकृतियां हैं। इनमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं। शेष प्रकृतियोंका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है । इन सब ही प्रकृतियोंका बन्ध परोदय होता है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, ये धुववन्धी हैं । स्त्रीवेदका, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये । स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और मीचगोत्रके औदारिकद्विक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्यर्योको कम करना चाहिये, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें इन प्रकृतियों के बन्धका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका देव व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिके साथ उनके बन्धका विरोध है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कके तीन गतियोंके जीव स्वामी हैं । शेष प्रकृतियोंके बन्धके देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका पन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है,
१ अ-काप्रत्योः ' मुक्कलेस्साए तिगइमएस्सेसा एदासिं ', आमतौ — सुक्कलेस्साए तिगश्मणुस्सस्त प्रवासेिं' इति पाठः।
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