Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, २७२.] लेस्सामग्गणार बंधसामित्त
[ ३५५ सांतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। थिर-सुभाण मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो।
पच्चया सुगमा । देवगइ-वेउब्बियदुगाणं बंधो देवगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरि देवगइसंजुत्तो। देवगइ-वेउवियदुगाणं दुगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । अवसेसाणं पयडीणं बंधस्स तिगइमिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिहिणो दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । अपुव्यकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । तेजाकम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुलहुव-उववाद-णिमिणाणं' मिच्छाइटिम्हि बंधो चउव्विहो । उवरि तिविहो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं पयडीणं सादि-अन्हुवो बंधो ।
__ आहारदुगस्स ओघभंगो । तित्थयरस्स वि ओघभंगो। दुगइअसं जदसम्मादिट्ठिणो मणुस
पाया जाता है।
ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धका अभाव है । स्थिर और शुभका मिथ्याप्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
प्रत्यय सुगम हैं । देवगति और वैक्रियिकद्विकका बन्ध देवगतिसंयुक्त होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यन्दृष्टि गुणस्थानों में देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है । ऊपर देवगतिसे संयुक्त होता है।
देवगति और वैक्रियिकद्विकके दो गतियों के मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयतः तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। शेष प्रक्रतियोंके बन्धके तीन गतियोंके मिथ्याधि, सासादनसम्याधि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियों के संयतासंयत, तथा मनुष्यगति के संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है।
तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलधु, उपवात और निर्माणका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । ऊपर तीन प्रकारका वन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबम्धी हैं । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
__ आहारकद्विककी प्ररूपणा ओघके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिकी भी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेषता इतनी है कि उसके दो गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और
१ प्रतिषु :-णिमिणस्स ' इति पाठः ।
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