Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 400
________________ ३, २९०. ] सम्मत्तमग्गणाए बंधसामितं [ ३७१ संजदद्धाणाणं, संजदासंजदम्मि वोच्छिण्णबंधाणं, धुवेण' विणा तिविहबंधुवगयाणं परूवणा सुगमा । देवा अस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २८९ ॥ सुगमं । असंजदसम्मादिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा बंधा । अप्पमत्तदाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २९० ॥ एदस्स अत्थो उच्चदे । तं जहा पुव्वमुदओ पच्छा [ बंधो ] वोच्छिज्जदि, अप्पमत्तासंजद सम्मादिट्ठीसु बंधोदय वोच्छेदुवलंभादो । परोदओ, णिरंतरो, असंजदसम्मादिट्ठीसु वेउव्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइय-पच्चयाणमभावादो बादालीसपच्चओ, उवरिमेसु गुणट्ठाणेसु ओघपच्चओ, देवगइसंजुत्तो, दुगइअसंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद- मणुसगइ संजदसामीओ, असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद - पमत्त अप्पमत्तसंजदद्धाणो, अप्पमत्तद्धाए संखेज्जेसु भागे सु पत्तविलओ, सादि - अडवो, देवाउअस्स बंधो त्ति अवगंतव्वो । स्थान में बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ध्रुव बन्धके बिना शेष तीन प्रकारका बन्ध होता है । इस प्रकार इनकी प्ररूपणा सुगम है । देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८९ ॥ यह सूत्र सुगम है । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । अप्रमत्तसंयतकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २९० ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते । वह इस प्रकार है - देवायुका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अप्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । परोदय और निरन्तर बन्ध होता है । असंयत'सम्यग्दृष्टियों में वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंका अभाव होने से भ्यालीस प्रत्यय हैं । उपरिम गुणस्थानोंमें ओघके समान प्रत्यय हैं । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है । दो गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्तसंयत बन्धाध्वान हैं। अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभागोंके वीतनेपर बन्धव्युच्छेद होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है। इस प्रकार देवायुके बन्धकी प्ररूपणा जानना चाहिये । १ प्रतिषु ' दुवेण ' इति पाठः । २ अप्रतौ ' व ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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