Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २९१. आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २९१ ॥
सुगमे । अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥२९२॥ एदस्स अत्थो सुगमो।
उवसमसम्मादिट्ठीसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २९३ ॥
सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा बंधा । सुहुमसांपराइयउवसमद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥२९४ ॥
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं बंधवोच्छेदो
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मीका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९१ ॥
यह सूत्र सुगम है। अप्रमत्तंसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २९२ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है ।
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, ऊंचगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक तक बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परायिकउपशमककालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २९४ ॥
पांच शानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्त.
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