Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

View full book text
Previous | Next

Page 399
________________ ३७० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २८७. ओरालियदुगाभावादो । अपच्चक्खाणचउक्कस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो। सेसाणं मणुसगइसंजुत्तो, साभावियादो। अपच्चक्खाणचउक्कस्स चउगइअसंजदसम्मादिहिणो सामी। सेसाणं देवणेरइया । बंधद्धाणं णस्थि, एक्कम्हि अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छिण्णट्ठाणं सुगमं । अपच्चक्खाणचउक्कस्स तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अडवो, अदुवबंधित्तादो । पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोभाणं को बंधो को अबंधो? ॥ २८७ ॥ सुगम । असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २८८॥ एदासिं संजदासंजदम्हि अक्कमेण वोच्छिण्णबंधोदयाणं, सोदय-परोदएहि णिरंतरबंधीणं, असंजदसम्मादिहि-संजदासंजदेसु जहाकमेण छादाल-सत्तत्तीसपच्चयाणं, देव-मणुसगइसंजुत्तबंधाणं, चउगइ-दुगइअसंजदसम्मादिहि-संजदासंजदसामीयाणं, असंजदसम्मादिट्ठि-संजदा रिकद्विकका अभाव है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । अप्रत्या. ख्यानावरणचतुष्कके चारो गतियोके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी है। शेष प्रकृतियोके देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्यान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्यानका विरोध है । बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८७॥ यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २८८॥ इन चार प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों एक साथ संयतासंयत गुणस्थानमें व्युच्छिन्न होते हैं । स्वोदय-परोदय सहित निरन्तर बन्ध होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें छयालीस और संयतासंयत गुणस्थानमें सैंतीस प्रत्यय हैं । देव और मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और दो गतियोंके संयतासंयत खामी हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत बन्धाध्वान हैं। संयतासंयत गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458