Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 412
________________ सम्मतमग्गणाए बंधसामित्तं [ ३८३ देवाउ-देवगइ-वेउब्वियदुगाणं बंधो देवगइसंजुत्ता । मणुसाउ- मणुसगइदुगाणं मणुसगइसंजुत्तो । तिरिक्खाउ - तिरिक्खगइदुगुज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो । ओरालियसरीरमज्झिमचउसठाण-ओरालिय सरीरअंगोवंग-पंच संघडण - अप्पसत्थविहायगइ- दुभग- दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं तिरिक्ख-मणुसग संजुत्तो बंधो । उच्चागोदस्स देव मणुसगइसंजुत्ता बंधो, तिरिक्खेसुच्चागोदाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो तिगइ संजुत्तो, णिरयगइबंधाभावादो । देवाउ-देवगइ-वेउब्वियदुगाणं तिरिक्ख- मणुसा सामी । सेसाणं पयडीणं बंधस्स सामी चउगइसासणा । बंधद्धाणं बंधवोच्छेदो च णत्थि । छदालीसधुवबंधपयडीणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो अद्भुवबंधित्तादो | सम्मामिच्छा हट्टी असंजदभंगो ॥ ३१८ ॥ पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादासाद - बारसकसाय - पुरिसवेद - हस्स - रदि-अरदिसोग-भय-दुगुंडा- मणुसगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वे उव्वियअंगोवंग- वज्जरि सहसंघडण वण्ण-गंध-रस- फास - मणुसगइ - देवगइ ३, ३१८. ] देवायु,देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका बन्ध देवगति संयुक्त होता है। मनुष्यायु और मनुष्यगतिद्विकका बन्ध मनुष्यगति संयुक्त होता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक और उद्योतका बन्ध तिर्यग्गति संयुक्त होता है । औदारिकशरीर, मध्यम चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका तिर्यग्गति और मनुष्यगति से संयुक्त बन्ध होता है । उच्चगोत्रका देव व मनुष्य गति से संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यचोंमें उच्चगोत्रका अभाव है । शेष प्रकृतियों का बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियों के नरकगतिके बन्धका अभाव है । देवायु, देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके तिर्यच व मनुष्य स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी चारों गतियोंके सासादन लम्यग्दृष्टि हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छेद नहीं है । छ्यालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुवबन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है ॥ ३१८ ॥ पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगति व देवगति प्रायोग्यानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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