Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 413
________________ arjasti धसामित्तविचओ [ ३, ३१८. ३८४ ] पाओग्गाणुपुत्री- अगुरुवलहुअ-उवघाद - परघाद- उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेयसर-थिराथिर - सुद्दा सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज जसकित्ति अज सकित्ति - णिमिणुच्चा गोद - पंचतराइयपडीओ सम्मामिच्छाइट्ठीहि बज्झमाणियाओ । उदयादा बंधो पुव्वं पच्छा [वा ] वोच्छिण्णो त्ति एस विचारो णत्थि, पयडीणमेत्थ बंधोदयवोच्छेदाणुवलंभादो | पंचणाणावरणीय-च उदंसणावरणीय पंचिंदियजादि - तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुवलहुअ-उवघाद- परघाद- उस्सास-तस बादर - पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुहणिमिण-पंचं तराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । णिद्दा- पयला-सादासाद-बारसकसायपुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि- सोग-भय- दुगुंछा - समचउरस संठाण - पसत्थविहाय गइ - सुभग-सुस्सरआदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति - उच्चागोदाणं बंधो सोदय- परोदओ, उहयहा वि बंधुवलंभादो । मणुस गइ - देवगड- वे उव्वियसरीर - ओरालिय- वे उव्वियसरीरअंगोवंग- वज्जरि सहसंघडण - मणुसगइ - देवगइपाओग्गाणुपुष्वीणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय बारस कसाय - पुरिसवेद-भय-भय-दुगुंछा- मणुसगइ देवगइपंचिंदियजादि-ओरालिय- वे उब्विय- तेजा - कम्मइयसरीर - समचउरस संठाण-ओरालिय- वेडव्वियअंगो पूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा बध्यमान हैं । उदय से बन्ध पूर्व में या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं हैं; क्योंकि, यहां उक्त प्रकृतियोंके बन्ध और उदयका व्युच्छेद नहीं पाया जाता है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे भी इनका बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, औदारिक व वैकियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदय से इनके बन्धका विरोध है । पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्य गति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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