Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २७५. सादि-अदुवो, अदुवयंधित्तादो।।
मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणि एगट्ठाणपयडीओ । एत्थ मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, मिच्छाइट्टिम्हि चेव तदुहयेदंसणादो । णउसयवेदअसंपत्तसेवट्टसंघडणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वेच्छिज्जदि, तहोवलंभादो । हुंडसंठाणस्स बंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्साए उदयवोच्छेदाभावादो । मिच्छत्तस्स बंधो सोदओ । सेसाणं तिण्णं पि परोदओ । मिच्छत्तस्स णिरंतरो। सेसाणं सांतरो । मिच्छत्तस्स दुगइसंजुत्तो । सेसाणं मणुसगइसंजुत्तो । मिच्छत्तस्स तिगइया सामी । सेसाणं देवा । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णहाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउविहो बंधो । सेसाणं सादि-अदुवो।
भवियाणुवादेण भवसिद्धियागमोघं ॥ २७५ ॥ णत्थि एत्थ ओघपरूवणादो को वि विसेसो, तेण ओघमिदि जुज्जदे ।
क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, ये एकस्थान प्रकृतियां हैं । इनमें मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं. क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही वे दोनों देखे जाते हैं। नपुंसकवेद और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है। हुण्डसंस्थानका बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें उसके उदयव्युच्छेदका अभाव है । मिथ्यात्वका बन्ध स्वोदय होता है। शेष तीनों प्रकृतियोंका परोदय बन्ध होता है। मिथ्यात्वका निरन्तर और शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है। मिथ्यात्वका दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मिथ्यात्वके बन्धके तीन गतियोंके जीव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धयुच्छिन्नस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका चारों प्रकारका बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
भव्यमार्गणानुसार भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २७५ ॥
चूंकि यहां ओघप्ररूपणासे कोई भेद नहीं है अत एव 'ओघके समान है ' ऐसा कहना योग्य है।
१ न-कापलीः । तदुदय-' इति पाठः ।
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