Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३५४]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ . [३, २७२. कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिर-सुह-णिमिणाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो। समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधाविरोहादो । उवघाद-परघादुस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु बंधो सोदय-परोदओ । अण्णत्थ सोदओ चेव, अपज्जत्तद्धाभावादो । णवरि पमत्तसंजदेसु परघादुस्सासाणं सोदय-परोदओ। सुभगादेज्जाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि त्ति बंधो सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-रस-गंध-फासदेवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरणिमिणणामाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधितुवलंभादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइसुभग सुस्सर-आदेज्जाणं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो। होदु णाम सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु देवगइसंजुत्तं बंधमाणेसु णिरंतरो बंधो, ण सांतरो ? ण, देवेसु सुक्कलेस्सिएसु
होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति,तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माणका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे ही इनके बन्धमें कोई विरोध नहीं है । उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय वन्ध होढ़ा है। अन्य गुणस्थानों में स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तकालका अभाव है। विशेषता इतनी है कि प्रमत्तसंयता परघात और उच्छ्वासका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। सुभग और आदेयका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और निर्माण नामकर्मीका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनमें ध्रुववन्धीपना पाया जाता है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका मिथ्यादृष्टि व सांसादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-इन प्रकृतियोंको देवगतिसे संयुक्त बांधनेवाले शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्यों में निरन्तर वन्ध भले ही हो, परन्तु सान्तर वन्ध होना सम्भव नहीं है ? ।
समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले देवोंमें उनका सान्तर बन्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org