Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 381
________________ ३५२ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २७२. हस्स रदि-भय-दुगुंछाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, अपुव्वकरणचरिमसमए तदुहयवोच्छेददंसणादो । बंधो सोदय-परोदओ, अद्भुवोदयत्तादो । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति हस्स-रदीणं बंधो सांतरो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। भय-दुगुंछाफ णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपञ्चओ अवणेयव्वो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुस-देवगइसंजुत्तो। उवरि देवगइसंजुत्तो अगइसंजुत्तो च । तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्विणो दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । भय-दुगुंछाणं मिच्छाइद्विम्हि चउव्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो । उवरि तिविहो, धुवाभावादो । हस्स-रदीणं सव्वत्थ सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो । मणुसाउअस्स बंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्साए उदयवोच्छेदाणुवलंभादो। परोदओ बंधो, सुक्कलेस्साए सव्वत्थ सोदएण बंधविरोहादो। णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पचया सुगमा । णवरि मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु ओरालियदुग हास्य, रति, भय और जुगुप्साका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उन दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है। बन्ध उनका स्वोदय परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक हास्य व रतिका सान्तर बन्ध होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। भय और जुगुप्साका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें मनुष्य और देव गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर देवगतिसंयुक्त और अगतिसंयुक्त बन्ध होता है । तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियों के संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । भय और जगुप्ताका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। ऊपर तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुवबन्धका अभाव है । हास्य और रतिका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। मनुष्यायुका केवल बन्धव्युच्छेद ही होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें उसका उदयव्युच्छेद नहीं पाया जाता। परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्याने सर्वत्र स्वोदयसे उसके बन्धका विरोध है । निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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