Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३४४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २६८. तं जहा - बंधो परोदओ, तेउलेस्साए सव्वगुणट्ठाणेसु सोदएण बंधविरोहादो | णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो | पच्चया सुगमा, ओघाविसेसादो | णवीर तिसु वि गुणट्ठाणेसु ओरालियदुग - वेडब्बियमिस्स - कम्मइय- णउंसयवेदपच्चया अवशेयब्वा । मणुसग संजुत्तो | देवा चैव सामी | मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठि असंजद सम्मादिट्ठत्ति बंधद्धाणं । बंधवे।च्छेदो सुगमो । बंधो सादि- अडवो ।
देवा अस्स ओघमंगो ॥ २६८ ॥
देण सूदत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- बंधो परोदओ, सोदएण बंधविरोहादो । निरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो | पच्चया ओघतुल्ला | वरि ओघे वि वेव्विय दुगोरा लिय मिस्स - कम्मइयपच्चया अवणेयव्वा । बंधो देवगइ संजुत्तो । तिरिक्खमणुससामीओ । वद्धाणं सुगमं । अप्पमत्तद्वार संखेज्जे भागे गंतूण बंधवोच्छेदो | सादि-अद्भुवो बंधो ।
आहारसरीर - आहारसरीर अंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ? अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २६९ ॥
वह इस प्रकार है- बन्ध उसका परोदय होता है, क्योंकि, तेजोलेश्या में सब गुणस्थानों में खोदय से उसके बन्धका विरोध हे । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्ध विश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, उनमें ओघसे कोई भेद नहीं है । विशेष इतना है कि तीनों ही गुणस्थानों में औदारिकद्विक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण और नपुंसकवेद प्रत्ययों को कम करना चाहिये । मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है । देव ही स्वामी हैं । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दष्टि, यह बन्धाध्वान है । बन्धयुच्छेद सुगम है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
देवायुकी प्ररूपणा ओघके समान है || २६८ ॥
बन्ध उसका
इस सूत्र से सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार हैपरोदय होता है, क्योंकि, स्वोदय से इसके बन्धका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय ओघके समान हैं । विशेषता इतनी है कि ओघ में भी वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये | देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है । तिर्यच और मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभाग जाकर वन्धव्युच्छेद होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २६९ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org