Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 376
________________ ३, २७२.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित [ ३४७ जाव पमत्तसंजदो ति बंधो सांतरा, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु उच्चागोदस्स बंधो सांतर-णिरंतरो, सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिविपच्चएसु' ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो, तिरिक्खमणुसमिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठीणमपज्जत्तकाले सुहतिलेस्साणमभावादो । मिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधो देव-मणुसगइसंजुचो । उवरि देवगइसंजुत्तो चेव, अण्णगइबंधाभावादो । तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउविहो । सासणादीसु तिविहो, धुवबंधाभावादो । सेसाणं सादि-अदुवो, अद्भुवबंधित्तादो । एगट्ठाण-बेट्ठाणपयडीओ ठविय उवरिमाओ ताव परूवेमो-णिद्दा-पयलाणं पुव्धं बंधो सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी वहां उसका बन्धविश्राम देखा जाता है । ऊपर निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उच्चगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच और मनुष्यों में उसका निरन्तर वन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके प्रत्ययोंमेंसे औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्तकालमें शुभ तीन लेश्याओंका अभाव है। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर देवगति संयुक्त ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियोंके संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चार प्रकारका वन्ध होता है । सासादनादिक गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उनके ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। एकस्थानिक और द्विस्थानिक प्रकृतियोंको छोड़कर उपरिम प्रकृतिओंकी प्ररूपणा १ अप्रतौ सासणसम्मादिछीम पच्चएम' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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