Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 368
________________ १, २६२.] लेस्सामग्गणार बंधसामित बंधाभावादो। थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेदाणं तिगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणी सामी, णिरयगईए सुहतिलेस्साभावादो । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णहाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । सासणे' दुविहो, अणाइ-धुवाभावादो । सेसाणं पयडीणं बंधो सव्वत्थ सादि-अडवो । असादावेदणीयमोघं ॥ २६२ ॥ देसामासियसुत्तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- अजसकित्तीए पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । असादावेदणीयअरदि-सोग-अथिरासुहाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, तहोवलंभादो । अथिरअसुहाणं बंधो सोदओ, धुवोदयत्तादो । अजसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव । असादावेदणीय-अरदि-सोगाणं सोदय-परोदओ, सव्वत्थ अनुवोदयत्तादो । सांतरो बंधो, सव्वासिमेदासिमेगसरएण वि सव्वगुणट्ठाणेसु बंधुवरमुवलंभादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । णवरि मिच्छाइट्टि .......................................... बन्धका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सारूदनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें शुभ तीन लेश्याओंका अभाव है। बन्धावान और बन्धव्युन्छिवस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र सादि व अध्रुव होता है। असातावेदनीयकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २६२ ॥ इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार हैअयशकीर्तिका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध न्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर और अशुभका पूर्वमें बन्ध व पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है । अस्थिर और अशुभका बन्ध स्वोदय होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है। असातावेदनीय, अरति और शोकका स्वोदय-पदय वन्ध होता है, क्योंकि, ये सर्वत्र अधुवोदयी हैं। सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन सबका एक समयसे भी सब गुणस्थानों में बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई भेद नहीं है । विशेषता १ प्रतिषु । सासणो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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