Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 370
________________ ३, २६५.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं [ ३४१ बंधो परोदओ, एदासिं देवेसु उदयाभावादो । मिच्छत्तबंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। अण्णपयडीणं सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । णवरि ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्वो, तत्थ सुहलेस्साए अभावादो । णउंसयवेद-हुंडसंठाण-असपत्तसेवट्टसंघडण-एइंदिय-आदाव-थावराणं ओरालियदुग-कम्मइयणवंसयवेदपच्चया अवणेयव्वा । मिच्छत्तबंधो तिगइसंजुत्तो। णवंसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं दुगइसंजुत्तो, देवगईए अभावादो । एइंदिय-आदाव-थावराणं तिरिक्खगइसंजुत्तो । मिच्छत्तबंधस्स तिगइमिच्छाइट्ठिणो सामी । अवससाणं पयडीणं देवा चेव सामी। बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउव्विहो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अदुवो अदुवबंधित्तादो। अपच्चक्खाणावरणीयमोघं ॥२६५॥ एदं देसामासियसुत्तं । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे- अपच्चक्खाणावरणीयस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जति, असंजदसम्मादिविम्हि तदुभयवोच्छेदुवलंभादो। अवसेसाणं बंधवोच्छेदो चेव । अपच्चक्खाणचउक्कस्स बंधो सोदय-परोदओ । मणुसगइदुगोरालियद्ग होता है, क्योंकि, इनका देवोंके उदयाभाव है। मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । अन्य प्रकृतियोका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं है। विशेष इतना है कि यहां औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये,क्योकि, उ शुभ लेश्याका अभाव है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन. एकेन्द्रिय. आताप और स्थावरके औदारिकद्विक, कार्मण और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको कम करना चाहिये। मिथ्यात्वका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननका दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, इनके साथ देवगतिके बन्धका अभाव है । एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मिथ्यात्वके बन्धके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके देव ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। अप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २६५ ॥ यह देशामर्शक सूत्र है, इसीलिये इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैंअप्रत्याख्यानावरणीयका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद ही है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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