Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, २६१.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[३३७ सामी । णवरि वेउब्वियचउक्कस्स तिरिक्ख-मणुसगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि ' त्ति वयणादो । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउविहो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीण सव्वत्थ सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो।
बेट्टाणी ओघं ॥ २६१ ॥
तं जहा -- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा', सासणसम्मादिविम्हि दोण्णं वोच्छेदुवलंभादो। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए पुणो उदओ चेव णत्थि, तेउलेस्साहियारादो। सेसाणं पयडीण बंधवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदाभावादो। थीणगिद्धित्तियअणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेदाणं सोदय-परोदओ । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइदुग-चउसंठाणे-चउसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दूभग-दुस्सर-अणादेज-णीचागोदाणं दोसु वि गुणट्ठाणेसु बंधो
विशेषता इतनी है कि वैक्रियिकचतुष्कके तिर्यंच और मनुष्य गतिके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयंत; तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं' ऐसा सूत्र में निर्दिष्ट है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्य गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओषके समान है ॥ २६१ ॥
वह इस प्रकार है-अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है । परन्तु तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका यहां उदय ही नहीं है, क्योंकि, तेजोलेश्याका अधिकार है । शेष प्रकृतियोंका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, उनके उदयव्युच्छेदका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका दोनों ही गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय
१ प्रतिषु वोच्छिण्णो' इति पाठः ।
२ अ आप्रयोः 'गइदुगसंठाण-च उसंघडण', कापतो गइदुगसंठाणचउसंठाण-चउसंबडण ' इति पाठः। छ.बं. ४३.
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